सींकती रही दीए की लौ में
अम्मा क्यूँ नहीं मुझको भी तूने
भैया सा घर में अधिकार दिया
हक़ मेरे हिस्से का काट-कपट
भैया को ही केवल प्यार दिया ,
मुझको भी गर ' पर ' मिलता
उड़ती-फिरती मुक़्त गगन में
माँ डाल सूरज के शहर बसेरा
सुर्ख़ सी उगती नील गगन में ,
स्वप्न सुनहरे ऊँचे-ऊँचे बूनती
लिखती नित नई-नई इबारत
दुनिया को दिखलाती क्या हूँ
किसमें हासिल मुझे महारत ,
मुक़्त पखेरू सी फ़िजां-फ़िजां
माँ विचरण करती जी भरकर
साँझ,भोर का डर,भय ना होता
माँ विचरण करती जी भरकर
साँझ,भोर का डर,भय ना होता
चलती बेख़ौफ़ राह पर डटकर ,
चील,कौओं की घूरतीं निग़ाहें
शीशे से वदन को बेंधती ऑंखें
कंचन तन ढाला कांच में क्यों
चील,कौओं की घूरतीं निग़ाहें
शीशे से वदन को बेंधती ऑंखें
कंचन तन ढाला कांच में क्यों
कुतर दी गईं उड़ानों की पाँखें ,
बाबुल के घर जन्मी पली बढ़ी
ससुराल पिया का घर कहती
है कौन सा घर मेरा बतलाओ
माँ कहाँ बता मेरी निज धरती ,
बाबुल के घर जन्मी पली बढ़ी
ससुराल पिया का घर कहती
है कौन सा घर मेरा बतलाओ
माँ कहाँ बता मेरी निज धरती ,
कोई भी मोल ना जाना मेरा
तोली गई जाने कित रूपों में
जली दीया सी सबके लिए मैं
खुद को सेंक दीए की लौ में ,
फरियाद करूँ किस अदालत
कैसी कुदरत तूने रची कहानी
क्यूँ देकर ऐसी अनमोल ज़िंदगी
दिया आँचल में दूध दृग में पानी ।
शैल सिंह
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