सोमवार, 31 अगस्त 2015

खुद को सेंक दीए की लौ में ,

सींकती रही दीए की लौ में 


अम्मा क्यूँ नहीं मुझको भी तूने 
भैया सा घर में अधिकार दिया 
हक़ मेरे हिस्से का काट-कपट 
भैया को ही केवल प्यार दिया ,

मुझको भी गर ' पर ' मिलता 
उड़ती-फिरती मुक़्त गगन में 
माँ डाल सूरज के शहर बसेरा 
सुर्ख़  सी उगती नील गगन में ,

स्वप्न सुनहरे ऊँचे-ऊँचे बूनती
लिखती नित नई-नई इबारत
दुनिया को दिखलाती क्या हूँ 
किसमें हासिल मुझे महारत ,

मुक़्त पखेरू सी फ़िजां-फ़िजां
माँ विचरण करती जी भरकर
साँझ,भोर का डर,भय ना होता 
चलती बेख़ौफ़ राह पर डटकर ,

चील,कौओं की घूरतीं निग़ाहें 
शीशे से वदन को बेंधती ऑंखें
कंचन तन ढाला कांच में क्यों 
कुतर दी गईं उड़ानों की पाँखें ,

बाबुल के घर जन्मी पली बढ़ी
ससुराल पिया का घर कहती 
है कौन सा घर मेरा बतलाओ
माँ कहाँ बता मेरी निज धरती ,

कोई  भी मोल ना जाना मेरा 
तोली गई जाने कित रूपों में
जली दीया सी सबके लिए मैं
खुद को सेंक दीए की लौ में ,

फरियाद करूँ किस अदालत 
कैसी कुदरत तूने रची कहानी
क्यूँ देकर ऐसी अनमोल ज़िंदगी  
दिया आँचल में दूध दृग में पानी ।

                                     शैल सिंह 




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