गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

आदतों में करना शुमार अकड़ मजबूरी मेरी

आदतों में करना शुमार अकड़ मजबूरी हुई 



मुझे क्या नाम,शोहरत,ओहदा कमाये कोई
ज़मीर बेचकर हमने कभी समझौता ना की ,

मोम सा दिल बनाने की पाई मैं ऐसी सजा
ठौरे-ठौर मोमबत्ती के मानिन्द जलाई गई
मेरी सादगी ही बस आई ज़माने को नज़र
मेरी हर बात हँसकर हवा में यूँ उड़ाई गई ,

मेरे आदर्शों उसूलों और सत्य की राहों को
पग-पग पर भुगतना पड़ा ख़ामियाजा सदा
भला साँच को आंच की कब परवाह हुई है
झूठ की बुनियाद नहीं करना ईमारत खड़ा ,

पढ़ सकूँ चेहरों के पीछे की दोगली इबारतें
हुनर सीखते-सीखते गुज़र गया इक जमाना
झूठ फ़रेब का मोटा मुलम्मा चढ़ा अक़्स पर 
लब पर आती हँसी नहीं काईयाँ सी दिखाना ,

आदतों में शुमार करना अकड़ मजबूरी हुई 
वरना इज्ज़त से जीने के हक़ सभी छीनकर
दुनिया कभी सिद्धान्तों पे तो चलने देगी नहीं
करवाएगी मनमानी,बेईमानी भी मजबूर कर ,

मुझे क्या नाम,शोहरत,ओहदा कमाये कोई 
ज़मीर बेचकर हमने कभी समझौता ना की ,

                                         शैल सिंह



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