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कविता, विरह श्रृंगार पर, '' किस प्रवास भूले सुधि तुम मेरी प्रिये ''

कविता,  विरह श्रृंगार पर,  '' किस प्रवास भूले सुधि तुम मेरी प्रिये '' पवन के प्रवाह से पट खुले यूँ द्वार के झट मैं चौख़ट पे आकर खड़ी हो गई बढ़ गईं  बेतहाशा कलेजे की धड़कनें  निगोड़ी बावली पांव की कड़ी हो गई , हर ख़टक तेरी आहट का आभास दे तुम आये लगा  वहम  भी छली हो गई जो   पथ निहारा किये बावरे नित नयन  आस की निराश झट वह घड़ी हो गई , उर में उठते हिलोर की तरंगें भांप के  चपल पछुवा छिनाल चुलबुली हो गई  किस प्रवास भूले सुधि  तुम मेरी प्रिये घर पता नहीं या  अन्जान गली हो गई , गंध गजरे की खोई दमक श्रृंगार की आँखें कजरारी मेंह की झड़ी हो गईं  दृग जला  दीप सा तन जली बाती सी नैनों में अकाल नींद की लड़ी हो गई , हूक हिय में उठे कुंके वनप्रिया कहीं    तृषा चातक सी और मनचली हो गई सुन कानन में पी-पी पपीहा की पीक      आयी मधुयामिनी याद...