सोमवार, 4 नवंबर 2019

कविता '' गीली-गीली फुहारों से भींगो यादों की ''

'' गीली-गीली फुहारों से भींगो यादों की  ''



उमड़ कर बही वेदना जो अश्रु धार में 
बह गई उनके यादों की धूप-छांव भी
वहम ही सही तो भी कुछ कम ना था
हृदय में था बसा भले पीर का गाँव ही ,

काश होती व्यथा की जुबान भी अगर
मुस्कराती नहीं मैं ग़म छुपा इस तरह 
न भावना का उमड़ता अथाह समंदर
न ग्रन्थ लिखती ज़िन्दगी का इस तरह ,

एकाकीपन से मुझे तो अटूट प्यार था 
क्यूँ रोज आता ख़्यालों में दबे पांव वो 
सुलगाता विरह की अगन से अंतहीन   
छितर जाता है हर्फ़ सा काग़ज़ों पे जो ,

वो आकर मेरी कल्पना कुञ्ज की गली 
पुराने मौसम का पुरवा बहा कर गया
फिर से अनवरत् ख़्वाबों का कांच के 
जत्था पलकों पर मेरी बिछा कर गया ,

भरकर उन्माद पोर-पोर में वसन्त सा 
पी अधर का पराग उर लगा कर गया
गीली-गीली फुहारों से भींगो यादों की  
आलम तन्हाई का यूँ महका कर गया ,

नई कोंपलें खिला यादों के दरख़्त पर 
झट उदासी के पतझड़ हरा कर गया
अतीत की डायरी के गर्द पोंछ नेह से  
तकलीफ़ों की सलवटें मिटा कर गया ,

सर्वाधिकार सुरक्षित
                        शैल सिंह 

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