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जुलाई 3, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आखिर लिखूं तो क्या लिखूं

आखिर लिखूं तो क्या लिखूं मुरझा से गए हैं अल्फ़ाज मेरे सुख गई है मन की तलहटी पैठ इनमें ढूँढूँ तो क्या ढूँढूँ  कुछ आता नहीं दिमाग में आखिर लिखूँ तो क्या लिखूँ , ताजी खुश्बुओं का झोंका कब आकर चला गया हुनर आशिकी का मेरे कहाँ लेकर चला गया सदा दूं तो किसको दूं कुछ आता नहीं दिमाग में आखिर लिखूं तो क्या लिखूं , अब न हाथ में आती कलम ले भावों का सुन्दर समन्वय ना ही दर्द देते शब्द कुछ करूँ कागजों पे कोई बवंडर  रिक्तता में भरूं तो क्या भरूं कुछ आता नहीं दिमाग में आखिर लिखूं तो क्या लिखूं , ऐसी तो न थी हालत कभी कैसे तबियत बिगड़ गई ऐसा हुआ क्या माज़रा फन से रंगत उतर गई बैठी करूँ तो क्या करूँ कुछ आता नहीं दिमाग में आखिर लिखूं तो क्या लिखूं , ना वो मधुर पल-छिन रहे ना सुहानी गुनगुनाती रात ना उमड़-घुमड़ सौहार्द्र बरसे ना स्वच्छन्द गूंजे अट्टहास वक़्त से कहूँ तो क्या कहूँ  कुछ आता नहीं दिमाग में आखिर लिखूं तो क्या लिखूं ।                       शै...

द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे जालिम

द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे ज़ालिम बर्बर आतंकों से दहला हुआ है विश्व भी ख़ौफनाक सायों में गुजरे सहमी ज़िदगी दहशतगर्दों के इरादों की अज़ीब दास्ताँ इंसानियत को मार जी रहे कैसी ज़िदगी    बनके अमानुष गिराते रोज ही क्रूर ग़ाज  झुलसा रहे निर्दयता से दुनियावी ज़िदगी  मौत का बरपा क़हर पसरा हुआ मातम  सांसों के अहसानों पर जी रहे हैं ज़िदगी  देख यह मन्जर मेरा होता है दिल घायल  पी-पी के घूँट ज़हर का जी रहे हैं ज़िदगी , यह कैसी सनक है धुन,उपद्रव किसलिए ऐसे खिलवाड़ से करोगे कबतक दरिंदगी ग़र न ज़मीर जागा न फूटा सोता स्नेह का  इक दिन तुम्हें भी लील लेगी तेरी दरिंदगी , हाय तुम्हारी हैवानियत को मैं क्या नाम दूँ  जन्नतेहूर की ख़ाहिश बनाई सस्ती ज़िदगी   द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे ज़ालिम तेरी बेरहमी बेगुनाहों की ले रही है ज़िदगी ,  जिस ख़ुदा वास्त...

गुलाब से सीख

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गुलाब से सीख  तेरी सुवासित कोमल पंखुड़ियाँ पर काँटों भरी टहनियाँ क्यों हैं     ऐ गुलाब बता तेरे ताबों के संग शूलों की इतनी लड़ियाँ क्यों हैं '       इन शूलों के भी बीच अकड़कर कैसे सुर्ख सिंगार कर मुस्काता है दुनिया को जरा यह रहस्य बता दे शूलों में घिर कैसे सुगंध फैलाता है  ।                                  शैल सिंह