आखिर लिखूं तो क्या लिखूं
आखिर लिखूं तो क्या लिखूं मुरझा से गए हैं अल्फ़ाज मेरे सुख गई है मन की तलहटी पैठ इनमें ढूँढूँ तो क्या ढूँढूँ कुछ आता नहीं दिमाग में आखिर लिखूँ तो क्या लिखूँ , ताजी खुश्बुओं का झोंका कब आकर चला गया हुनर आशिकी का मेरे कहाँ लेकर चला गया सदा दूं तो किसको दूं कुछ आता नहीं दिमाग में आखिर लिखूं तो क्या लिखूं , अब न हाथ में आती कलम ले भावों का सुन्दर समन्वय ना ही दर्द देते शब्द कुछ करूँ कागजों पे कोई बवंडर रिक्तता में भरूं तो क्या भरूं कुछ आता नहीं दिमाग में आखिर लिखूं तो क्या लिखूं , ऐसी तो न थी हालत कभी कैसे तबियत बिगड़ गई ऐसा हुआ क्या माज़रा फन से रंगत उतर गई बैठी करूँ तो क्या करूँ कुछ आता नहीं दिमाग में आखिर लिखूं तो क्या लिखूं , ना वो मधुर पल-छिन रहे ना सुहानी गुनगुनाती रात ना उमड़-घुमड़ सौहार्द्र बरसे ना स्वच्छन्द गूंजे अट्टहास वक़्त से कहूँ तो क्या कहूँ कुछ आता नहीं दिमाग में आखिर लिखूं तो क्या लिखूं । शै...