ना मैं जानूं रदीफ़ ,काफिया ना मात्राओं की गणना , पंत, निराला की भाँति ना छंद व्याकरण भाषा बंधना , मकसद बस इक कतार में शुचि सुन्दर भावों को गढ़ना , अंतस के बहुविधि फूल झरे हैं गहराई उद्गारों की पढ़ना । निश्छल ,अविरल ,रसधार बही कल-कल भावों की सरिता , अंतर की छलका दी गागर फिर उमड़ी लहरों सी कविता , प्रतिष्ठित कवियों की कतार में अवतरित ,अपरचित फूल हूँ , साहित्य पथ की सुधि पाठकों अंजानी अनदेखी धूल हूँ । सर्वाधिकार सुरक्षित ''शैल सिंह'' Copyright '' shailsingh ''
गुरुवार, 13 दिसंबर 2012
संजीवनी
संजीवनी
आज हृदय के द्वार पर हलचल
मैंने नीर भरी आँखों से देखा
पथ पर जाते एक बटोही को
था जो प्रियतम के रूप सरीखा ।
सिमट गया आँचल में आकर
पानी मान सरोवर का फीका
देखो प्रणय के मुझ जैसे मतवाले
मोती सी झर-झर गंगाजल का ।
डाली पर इतराती कलियाँ जो
रवि की किरणों में खिलती हैं
दुःख दर्द किसी के जीवन का
वो मुस्काती अधरों से कहती हैं ।
सुमनों के प्रेमी हे भ्रमरा तुम
उनक अंतर भावों को पढ़ लेना
जो मूक कहानी कहती हों उनके
प्रियतम से दूर देश में कह देना ।
शब्दों में बिखराकर अन्तर गाथा
शिलाओं की सतह पर लिखती हूँ
पथ जाने वालों बतलाना उनको
सपनीले विश्राम गेह को चलती हूँ ।
निर्भय मृत्यु की मुझ पर महिमा
उसके तुमुल गर्जन से डरती हूँ
पर सांसों के विश्रृंखल पल में भी
मौत को संजीवनी दिया करती हूँ ।
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