शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

" पी ज़हर का प्याला भी ये दर्द मरता नहीं "

" पी ज़हर का प्याला भी ये दर्द मरता नहीं "


मृदुल अहसासों  का असंख्य  उपहार दे
ग़म,दर्द, ख़ुशी प्यार का अनन्य संसार दे 
प्रीति की  ज्योति आँखों  में जलाकर गये
चैन दिन का  नींद रातों की  चुराकर गये ।

मधुर बोलों से कर के  गुञ्जार श्रवणेंद्रियाँ
अपने आधीन कर श्वांसें,धड़कनें,इन्द्रियाँ
छू गात अनुराग से चित्त गुदगुदाकर गये
मंजु कलिका उर में प्रेम की उगाकर गये ।

दिल,ज़िगर,क़रार सब अपने संग ले गये
शूल इंतज़ार के एवज में वे बेअंत दे गये   
रंगीन ख़्यालों के भंवर में उलझाकर गए
तृषित नयनों में भोली छवि बसाकर गए ।

शरीर मेरा है मगर जीव  मुझमें मेरा नहीं
उनके रंग में घुल बह रही अधीर मैं कहीं
ले परिधि में बांहों के ज़न्नत दिखाकर गए 
अनुराग का आसव  नैनों से पिलाकर गए ।

लगे सरसराहट हवा की मुझे आहट तेरी
राह भूले गली का भला किस बाबत मेरी 
क्यों झूठे वादों का दिलासा दिलाकर गए
सितारे आसमानी दिवा में  दिखाकर गए ।

चाँद,तारे क्षितिज के जाने गये सब कहाँ
थे जो कभी साक्षी हमारे प्रीत के दरम्याँ
भीड़ में भी गुमसुम रहना सीखाकर गए 
हसीं ज़िन्दगी वे मेरी बेहिस बनाकर गए ।

हर घड़ी क्यूँ सांस में वो याद बनकर रहे
यादों की भी काश यदि कोई सरहद रहे
न कितना करना सफ़र तय बताकर गए
न पता क्या अपने शहर का बताकर गए । 

सुना है शहर में आजकल वो आये हैं मेरे
चल पड़ी मिलने बेधड़क तोड़ सारे पहरे
इस क़दर वे मुखड़ा  मुझसे छुपाकर गए
पीर और अतिशय हृदय की बढ़ाकर गए ।

पी ज़हर का प्याला भी ये दर्द मरता नहीं
खा बेवफ़ाई के ज़ख़म भी  संभलता नहीं
शराफ़त से वो हजारों ग़म  बिछाकर गए
किस ज़ुर्म की सजा में ऐसे तड़पाकर गए ।  

आसव---मदिरा
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह



बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

नज़्म '' मेरे लफ़्ज़ों का दर्द क्या है वो काग़ज़ ही जानते हैं ''

 '' मेरे लफ़्ज़ों का दर्द क्या है वो  काग़ज़ ही जानते हैं  ''


कहते हैं लोग मुझको दीया साँझ को जलाया करो
जबकि रहता मकाँ रौशन उसके यादों के चराग़ से
अब तलक ज़ेहन में ताज़ी है वस्ल की सुहानी रात
कभी हिज्र में भी ना हुईं रुख़्सत वो यादें दिमाग़ से ।

बहुत सोचा कर दूँ ख़यालों को आज़ाद ग़िरफ़्त से     
ख़ुश मिज़ाज यादें छोड़तीं ना पीछा दिल तोड़ कर 
शुक्र है कि कर लेती हूँ  दर्द बयां लिख काग़ज़ों पर 
वरना अब तक बिखर गई होती दिल कमजोर कर ।

जबकि मालूम ख़्वाब झूठे पर जिंदा रहने के लिए
मेरी तन्हाइयों,ख़्वाबों को और महका जाता है वो
ये कैसा अनूठा रिश्ता ज़ुदा हो भी नहीं होता ज़ुदा
मेरी हर रात,अलस्सुबह ग़ुलों से सजा जाता है वो ।

कैसे सीखूँ  श्वासों में बसा उसे  भूल जाने का हुनर
बड़ा दर्द होगा मर के जीना रातों का दर्द मिटाकर 
घुल-घुलकर भुला दिया ख़ुद को उसकी चाहतों में
उसकी आदत सी है रखा जिगर में दर्द संभालकर ।

सारे रिश्ते तोड़े उसने ताउम्र बस क़ुसूर ढूंढती रही 
जीती रही भरम में  समझी ना नज़रअंदाज़ उसका
इक लम्हे के प्यार लिए लुटा दी मैंने सारी ज़िन्दगी
उसके आने की उम्मीद में निगाहें देखें राह उसका ।

मेरे लफ़्ज़ों का दर्द क्या है वो काग़ज़ ही जानते हैं 
बेरंग लगे ज़िन्दगी ध्वनियाँ धड़कनों की शोर जैसे
उससे कह दे जा कोई लौट आये बैठी इन्तज़ार में
लगे सारा शहर उसके बिना वीरां हो गया हो जैसे । 

वस्ल—मिलाप, हिज्र—विछोह 

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह

गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह


झूठी मुस्कुराहटों के सूखे होंठों पे दर्द
लफ़्ज़ बन उसे कर देंगे बज़्म में बेपर्द ।

पीये होती ग़र शराब हो जाता वबाल
इसलिये पी लिया समन्दर आँखों का
यदि होता हक़ीक़त सब पूछते सवाल
इसलिये छुपा लिया बवंडर आँखों का ।

किसे परवाह इन मासूम आँसुओं की  
तैरे बेबसी की  किश्ती सब्र आँख का
रहके पलकों की हद में,लब रख हँसी
करता रहता ख़ुदकुशी अब्र आँख का ।

ख़ुदा जानता है मेरे दिल में बात क्या
वो होता बेनक़ाब कह देती बात क्या
मुझको नहीं देना हर बात का जवाब
ख़ामोशी बता देगी  दिल में बात क्या ।

ज़िन्दगी की भी कैसी हाय ये बेचारगी  
रोने को विवश, ज़ब्त करने में लाचार 
गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह
भीतर की तबाही के सह के अत्याचार ।

अनायास खर्च किया मैंने आँसू हज़ार 
बेवफ़ाई के मंडी में हुई वफ़ा शर्मसार
चुपचाप बिखर जाऊँ या करुँ बयां दर्द
या काटूँ सज़ा उम्मीद की करुं इंतज़ार ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह आँख

सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

सुशांत सिंह राजपूत पर कविता '' हम सबके दिलों में रहोगे जिंदा मरते दम तक ''

सुशांत सिंह राजपूत पर कविता 
हम सबके दिलों में रहोगे जिंदा मरते दम तक 


होता नहीं यक़ीं कि तुम इस जहाँ में अब नहीं
अश्क़ बहें तेरे याद में आँखें किसकी नम नहीं
मुक़र गई नींद नैयनों से बिलखते गुजरती रात
तुम अब लोक में नहीं कैसे दिलाएं यह विश्वास  ,

तस्वीर तेरी जब कहीं दिखाई देतीं आँखों को
छलक उठते हठात् आँसू भींगो देते गालों को   
जैसे ऋतु बरसात की आँखें रहतीं हरदम नम   
क्यों मौत को लगा गले दिये इतने तुम ज़ख़म ,

अच्छा हुआ दिन शोक का देखने से पहले माँ 
परलोक गईं सिधार वरना देखतीं यह हाल ना  
न जाने बीतती क्या माता पर कैसा होता मंज़र
असह्य वेदना सोच नयन में उतर आता समंदर ,

क्या होगा हाल पापा का इक बार भी न सोचा  
थे इकलौते भाई बहनों के इक बार ये न सोचा 
कैसी वेदना थी मन में ऊफ़ मथते रहे ख़ुद को 
कष्ट यही,लेते व्यथा बांट दंड देते नहीं ख़ुद को ,

मातम अरमां का मना मृत्यु का ख़याल छोड़ते
किसका डर,भय किस बात का मलाल बोलते
कचोटता है हृदय सहा अपार दर्द क्यों अकेले 
कोई हमदर्द काश समझा होता मर्म कैसे झेले ,

हम सबके दिल में जिंदा रहोगे मरते दम तक
कहाँ ढूँढें तुझको दिए नहीं पता तुम अब तक
दीप सभी तेरे नाम का जलाए  रखेंगे तब तक
इन्साफ़ तेरी मौत का दिला देंगे नहीं जब तक ,

अरे मौत के सौदागरों सुन लो कान खोलकर 
करना गुनाह कुबूल या जाना जहान छोड़कर
हम सबने ठान लिया तुम सब को नंगा करना  
सड़कों पे उतर करेंगे हम प्रदर्शन दंगा धरना ।


सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह

बचपन कितना सलोना था

बचपन कितना सलोना था---                                           मीठी-मीठी यादें भूली बिसरी बातें पल स्वर्णिम सुहाना  नटखट भोलापन यारों से क...