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नींद पर कविता '' बोझल पलकों को कर-कर ''

नींद पर कविता शब शबाब पर होती अपने नींद क्यूँ रहती ऐसे बेखबर , आती नहीं आँखों में पगली  बोझल पलकों को कर-कर बावरी सी भटकती फिरती जाने कहाँ-कहाँ इधर-उधर , बगल वाले का ख़र्राटा जब चुग़ली करता इन कर्णों में तब इक भभका सा उठता  जलन होती है मेरे वक्षों में , मन्त्रोच्चार करुं मन ही मन या जपूं राम नाम की माला निगोड़ी करे बेहयाई चाहे जप,पड़ जाये जीभ में छाला , मेरी दुर्दशा पर तकिया अंगरे अकड़े करवट दुर्गति पे अपने तड़पाती रात की तन्हाई हाय तल्ख़ हो कुढ़ते भोर के सपने , लिहाफ़ ओढ़ूँ या तानूं,खींचूं कानों के छज्जे पे कर कब्ज़ा भनभनाना मच्छरों का जारी खूँ चूसते रहते हैं कूज़ा-कूज़ा , उपक्रम नींद का करती जब टपक पड़ती भोर की लाली विहंगों का चहकना गूंज उठे  बजा देती घण्टी काम वाली , फिर जुत जाती हल बैलों सी रोज़मर्रा के तमाम कामों में यही होती रोज की दिनचर्या थक जाती इन समस्याओं में। शब्--रात, शबाब--जवानी कूज़ा-कूज़ा--कुल्हड़ या सकोरा भर-भर  ...