"मिले आँखों को सुकूं चले आओ तुम
अविचल द्वारपाल बन खड़ी द्वार पर दो पुतलियाँ बावरी तक रहीं राह पर काटे कटता नहीं लमहा इन्तज़ार का कितनी शामें गुज़र गयीं दहलीज़ पर । लौट आने की शर्त पर जहाँ छोड़कर तुम गये थे खड़े हैं हम उसी मोड़ पर कैसे भूले मिलन का प्रथम तुम प्रहर प्रणय पल में दिए जो वचन तोड़ कर । धड़कनें भी तो नादान धड़कें यादों में इस क़दर समा गये शिराओं सांसों में मिले हृदय को सुकून चले आओ तुम घटा सावन सी घुमड़े सदैव आँखों में । पथ आते-जाते हैं कितने बटोही मगर बेख़्याल तुम हो गये या निर्मोही डगर जागी हर रात श्वेताभ चाँदनी संग मेरे नभ के तारों से पूछलो न मानो अगर । उन्नीदे नयनों में बीति रातों के वृतान्त पढ़ लेना काटे जो वक्त तन्हा नितान्त ग़र आ ना सको दो निज घर का पता सब्र होता नहीं उर है कितना अशान्त । सैलाब बन प्रीत का बहूं जीवन में तेरे फिरूं नींद का ख़्वाब बन नैनन में तेरे मन के पतझड़ में तेरे अभिलाषा मेरी झूमूं शादाब सा पुष्प बन चमन में तेरे । शादाब--हरा-भरा सरवाधिकार सुरक्षित शैल सिंह