'' ना जाने क्यों मन आज उद्द्वेलित है ''
जज़्ब कर नीर नैन का लाल दर्द सीने में ज़ब्त किया थाकदमों में बिछा दुनिया की नेमतें सीने से जुदा किया था ,
क्यूँ मन की मौन तलहटी में ऐसी हलचल हो रही आज
लगता कोई पीड़ा मथ रही लाल को जो छुपा रहा राज ,
भींचकर गम सीने में गुमसुम मत कभी रहना चुपचाप
तेरे बेचैन साँसों के स्वर की भी माँ सुन लेती है पदचाप ,
तेरे अवयव की हर धड़कन मुझसे ही हो के गुजरती है
गर बदली तुझ पर घिरती है तो वारिश मुझ पर होती है ,
माँ के व्यंजन की खुश्बू तेरे नथुनों तक भी जाती होगी
माँ देख सामने थाली दृग से,छह-छह धार बहाती होगी ,
तूं जबसे दूर गया नयन से,मन अंदेशों में घिरा रहता है
ऐ जान-ज़िगर के टुकड़े मेरे प्राण तुझी में बसा रहता है ,
एक-एक निवाला हलक में मैं मुश्किल से उतार रही हूँ
इक-इक दिन काट इंतजार में बाट बेसब्र निहार रही हूँ ,
जाकर परदेश में बबुवा मत परदेशी फिरंगी बन जाना
माँ ताक रही रस्ता शिद्दत से जल्दी घर अपने आ आना ।
शैल सिंह
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