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याद पर कविता " महका जातीं सांसों को अनुराग से "

 " महका जातीं सांसों को अनुराग से " जब-जब दूधिया  किरण छितराई बजी सुधियों वाली मृदुल शहनाई टंगी तस्वीर देख मन की भीत पर सीने में हूक उठी आँख डबडबाई , जो ख़ुश्बू समाई अबतक सांसों में रोक लूँ सांसें लेना  ये सम्भव नहीं पृथक कर दिए उसूलों ने राहेें मगर दिन बिन याद गुजरे ये सम्भव नहीं , यादें प्राय: बिखेरतीं इन्द्रधनुषी रंग  आ पलकों की  चौखट अन्दाज़ से  नेेह से चूम अंतस् के अहसास को महका जातीं सांसों को अनुराग से , रखीं अनमोल ख़तों की निशानियां जिन शब्दों में बसी सुगंध प्यार की उम्र भर रखा चस्पा कलेजे से उन्हें थकीं आँखें न कम्बख़्त इंतज़ार की , हर डगर पर करतीं  यादें परिक्रमा  पग-पग चलें साथ परछाईं की तरह स्तम्भ सम खड़ी स्मृति आत्मा में वो जो दमकतीं सूर्ख अरुनाई की तरह । सर्वाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह 

गीत रचना

" कैसे बतलाऊँ हया की बात " वो मेरे कजरे की हैं धार तभी तो नैन मेरे कजरारे  हर कोई झांके मेरी आँखों में  छुप-छुप नैन मेरे निहारे पूछें छवि किसकी इसमें आबाद बता दे ज़ेहन में कौन बसा रे अँधेरी रात में भी चाँद सा रौशन दमकता मुखड़ा क्यों मेरा रे  कैसे बतलाऊँ शर्म से बोझिल कि कैसे पलकें झुकी उठीं उजियारे , वो मेरे रत्नों के भण्डार तभी तो गले मोतियों की हारें वो मेरे सूरज हैं रक्ताभ तभी तो चाँद सा नूरां चेहरा रे मेरी चंचल चितवन घनकेश घटा  नैनों की झील में वो आकण्ठ डूबा रे बिन सिंगार के भी हैं लोग पूछते क्यों मेरा रूप निखरताा जा रहा रे  कैसे बतलाऊँ हया की बात कि हुए क्यूँ रक्तिम मेरे रूख़सार रे,   वो बोल मेरी गीतों  के तभी तो कण्ठ मेरे रसधारे वो मेरे सुन्दर सुरों के साज तभी तो स्वरों में घुले ताल चटखारे बनी उनके लिए फ़नकार तभी तो पाजेब मेरी झनकारे मेरी अभिव्यक्तियों के भाव अलख कैसे होते इतने मुखर मंजुल अन्दाज़ रे  कैसे बतलाऊँ उनके ख़यालों का भीना  मेरी रोम-रोम में ...

कविता " कितनी बार की श्रृंगार हृदय के ज्वार के लेकिन "

तुम आँखों से पढ़ लेते मेरे मानस की ग़र भाषा स्वयं मौन निमंन्त्रण की समझ जाते अभिलाषा मैं प्रेम का प्रतिमान समर्पण की ऋचा थी पगले उम्र की बीति सदी आधी दिवंगत रह गई आशा, उर्मि उर के सरोवर की ढकी छतनाई जलकुंभी न तह का कभी कोलाहल उफनाई सतह पे भी हृदय के उपनिषद का पृष्ठ कभी खोल पढ़ लेते तो मन के मुक्तक को न लिखती मैं विरह में भी , मुलायम भावनायें थीं शोख़ हिरणी सी तरूणाई आस जिस चाँदनी की थी कभी उगी न अंगनाई कितनी बार की श्रृंगार हृदय के ज्वार के लेकिन  वसंती मनुहार की कर्ण में कभी गूंजी न शहनाई , झंकारें लोम की तेरे उन्मादित होती ही नहीं जैसे क्यों इस तरह शिराओं के रसों को विश्राम दे बैठे छलकते यौवन की मदिरा के अभिप्राय ना समझे  ऐश्वर्य रूप का कुम्हलाए तुम भरे मधुमास में ऐंठे , आद्र अरूण कपोलों को कभी तुम चूम भर लेते हुलस भुजपाश में भर कर कभी यूँ झूम भर लेते मृदुल मुस्कानों पर मेरे भ्रमर सा तुम मचलते ग़र अनुष्ठान साधना का करती रसपान तुम कर लेते । उर्मि--लहर,     लोम--रोआँ    सर्वाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह