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मई 24, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान

आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान रीढ़ की हड्डी तोड़ रही कर्ज़ का भारी बोझ  रंगदारी,दबंगई वसूली,की जमात घर रोज    अन्न अधमरे खेतों में औंधे बेजान निर्जीव देख दुर्गति फसलों की उड़ गई है नींद  तपे तवा सी धरती उगले सूरज रोज आग  कलप रहा है किसान हाथ लिए सल्फास , मौसम हुआ हठीला है निर्मम हुई हवाएं  सारी मेहनत खाक़ हुई हथेली आपदाएं  लुटा हुआ किसान निरख रहा आकाश  प्राण आधे रह गए ना भूख लगे ना प्यास , बदहाली दुर्दिन की समझे कौन व्यथाएं  अंतस में दफ़न हुई सूली लटकी वेदनाएं  जुल्म की पूरी दास्तान कह रही मरुभूमि  उजड़ा हुआ है माली,बुने सपने हुए यतीम , झूठी सांत्वना की पूँजी खोखली संवेदनाएं  फितूर साबित हो रहीं हैं जन-धन योजनाएं  मौन का ताला लटके ओहदों की शाख पर  मर्म पे लेप कौन लगाये पट्टी पड़ी आँख पर , अन्नदाता की कुंडली उल्कापात,ओले पानी  फिर से पुनर्जीवित हुई होरी की नई कहानी  आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान  धूल...

बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है

बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है  इक तासीर दिल को जब से मिली है ज़िन्दगी झूम कर मुस्कराने लगी है अमां का कासा मिला मिली ज़िन्दगी  गीत ख़ुशी के जुबां गुनगुनाने लगी है इनाम मुझे मेरी परस्तिश का मिला सांसों-सांसों में मस्ती समाने लगी है सप्तरंगों में दुनिया सज़ी ख़्वाबों की उन्नींदी रातें चांदनी में नहाने लगी है झनझनाने लगे सुप्त सभी तार मन के सुर टूटे तारों की वीणा सजाने लगी है मोतियों में हुईं आँसू की बूंदें तब्दील वैरागन उदासी नग़मा सुनाने लगी है खुलुश मिल गया है शाद दिल है मेरा फिर आरजूवें महफ़िल सजाने लगी हैं दर्दों में डूबी थी जो आज तक बन्दग़ी  आकर सपनों में ताबीर पिराने लगी है रातें सितारों से जगमग मेरी हो गईं हैं  हिलोरें किनारों से बातें करानें लगी हैं आकर वाहयातों देखो मेरी नाचीज़ पर बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है ठहर सी गयी थी ज़िंदगी इक मोड़ पर अब वो रास्ता कई नये दिखाने लगी है तलाश में जिसकी बेजां हम दर-दर हुए आ मकसदें सामने सिर झुकाने लगी...