आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान
आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान रीढ़ की हड्डी तोड़ रही कर्ज़ का भारी बोझ रंगदारी,दबंगई वसूली,की जमात घर रोज अन्न अधमरे खेतों में औंधे बेजान निर्जीव देख दुर्गति फसलों की उड़ गई है नींद तपे तवा सी धरती उगले सूरज रोज आग कलप रहा है किसान हाथ लिए सल्फास , मौसम हुआ हठीला है निर्मम हुई हवाएं सारी मेहनत खाक़ हुई हथेली आपदाएं लुटा हुआ किसान निरख रहा आकाश प्राण आधे रह गए ना भूख लगे ना प्यास , बदहाली दुर्दिन की समझे कौन व्यथाएं अंतस में दफ़न हुई सूली लटकी वेदनाएं जुल्म की पूरी दास्तान कह रही मरुभूमि उजड़ा हुआ है माली,बुने सपने हुए यतीम , झूठी सांत्वना की पूँजी खोखली संवेदनाएं फितूर साबित हो रहीं हैं जन-धन योजनाएं मौन का ताला लटके ओहदों की शाख पर मर्म पे लेप कौन लगाये पट्टी पड़ी आँख पर , अन्नदाता की कुंडली उल्कापात,ओले पानी फिर से पुनर्जीवित हुई होरी की नई कहानी आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान धूल...