गुरुवार, 13 अक्तूबर 2022

तूने क्या परितोष दिया,

       तूने क्या परितोष दिया


तूं कितना कंजूस है भगवन तुझसे बहुत शिकायत है
क्यूँ मेरे लिए ही हर जगह तूं करता इत्ती किफ़ायत है,

मैंने भी तो मंदिर-मंदिर जा तुझको था परनाम किया
तेरी दहलीज़ पर मत्था टेक,चरणामृत का पान किया,

मैंने भी फल,मेवा थाली,भर-भर भोग तुझे लगाया था
अक्षत,रोली,धूप,अगर,चारों कोणों में दीप जलाया था,

गोमाता के शुद्ध क्षीर से हर-हर बम-बम नहलाया था
चालीसा औ महामंत्र पढ़ बस तुझमें ध्यान रमाया था,

दान,दक्षिणा दे द्विजों को भी श्लोक,मन्त्र,पढ़वाया था
घंटियों की कर्कश ध्वनियों से कितनी दफ़े जगाया था,

नैनों की अविरल धार से,कितनी बार अभिषेक किया
निर्निमेष कर जोड़े भाव से,पर तूने क्या परितोष दिया,

रत्ती भर भी भान नहीं था भगवान घाघ,घूसखोर भी है
तगड़े असामी के लिए लगा,देता ताक़त पुरजोर भी है,

मैंने तो अपनी सामर्थ्य और क्षमता तुझ पे खूब लुटाया
बेजान शिला की मूरत ने क्यूँ पग-पग मुझको भरमाया,

प्रभु भोर हुई तेरे दरश से मेरी,जप नाम तेरा मेरी शाम
सुबह,सांध्य गंवाया मैंने तेरी,आरती,वन्दन में निष्काम,

कभी चाँद,सितारे तो मांगा नहीं ना ही मांगी आसमान
छोटे-छोटे सपनों के नयन में सजे थे कुछ मेरे अरमान,

छली गई आस्था सिरे से,ठगा गया अपरिमित विश्वास
तुझे क्षमा नहीं करुँगी दंभी जब तक लेती रहूंगी श्वांस,

शेष बचे उम्मीदों पर थोड़ी सी कृपा अपनी बरसा देना
ऐ प्रस्तर के निठुर देवता आकांक्षा के फूल खिला देना ।

                                                       शैल सिंह



बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

एक हमारा कल था

 एक हमारा कल था 


अब तो उलझकर बचपना बस किताबी हो गया
हाथों में टैब,मोबाईल ठाठ बहुत नबाबी हो गया ,

अब तक है याद ताज़ी,छुटपन के प्यारे गाँव की
छपाछप खेलना बरसातों में काग़दों के नाव की ,

भोर की सुनहरी किरणें ढलती सुहानी शाम की
नीम,कीकर का दतुवन सेंक सर्दियों के घाम की ,

पक्षियों की चहचहाहट कागा के कांव-कांव की
प्रणाम करना,नित्य भिनुसार बुज़ुर्गों के पांव की ,

झरकन बसंती हवा की बरगद के घने छाँव की
गन्ध सोंधी महक माटी की  बचपन के ठाँव की ,

ओसारों में डलीं खाटें लुत्फ़ चाँदनी के रात की
यादें बहुत हैं रुलाती गुज़री घड़ियों के बात की ,

संयुक्त परिजनों का क़स्बा दादू के चौपाल की
पक्के कुंवना का पानी चने,अरहर के दाल की ,

मटर की घुघुरी,कच्चा रस, सरसों के साग की
चोखा भऊरी का लुफ़्त पके गोहरे के आग की ,

चिन्ता ना फ़िकर,ज़िम्मा ना ज़हमत जवाल की
गुडे्-गुड़िया याद झूला वो निमिया के डाल की ,

सखियों संग कुलांचें भरना अमुवा के बाग़ की
याद आये कुर्ती लगे जंबुल,टिकोरे के दाग की ,

घर के विशाल अहाते,चौबारे में किये राज की
सिमट गयी हा ज़िन्दगी दो कमरों में आज की ,

अज़ीब शहरी आबो-हवा,काम की न काज़ की
लूटी जाये रोज आबरू बहन-बेटी के लाज की ।  

कीकर--बबुल, जंबुल---जामुन                                           

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2022

अनवार दिल पे सितम ढा रहे हैं

अनवार दिल पे सितम ढा रहे हैं

रात गहगह चाँदनी में नहाई हुई है
झिलमिल सितारे जगमगा रहे हैं
नाग़वार दिल को लगे ये नज़ारा
अनवार दिल पे सितम ढा रहे हैं।

नज़रों की खुराफ़ात ख़ता दिल से हो गई
सदमा गहरा दिल पर जुदा तुमसे हो गई
कौन हूँ मैं तेरी क्या वाबस्ता तुझसे मेरा
हुई वफ़ा संग बेवफ़ाई ख़फ़ा तुझसे हो गई ,

झांकते हैं रोज पलकों की बन्द झिर्रियों से
अबस यादों के गुस्ताख़ वो गुजरे ज़माने
यादों के पाँखी मन क़फ़स में फड़फड़ाते 
रक़्स करते हैं और जख़्म जवां हो पुराने ,

ये जलवे फिज़ा के ये शब की गहनाई
मंज़र वही पर रौनक़े-महफ़िल नहीं है
हँसीं ग़ुंचे वही सबा पेशे गुलशन वही है
मगर जलवा-ए-नुरेज-अज़ल वो नहीं है ,

आहिस्ता-आहिस्ता ये रात ढल रही है
रुख पे नकाब डाले चाँद छिप रहा है
आसमां के जुगनू सितारे सो गए सब
दिल बहलाने के  सहारे खो गए सब ,

शेर --

गुजरे किस दौर से हैं फिर भी मुस्कराये
तख़लीफ़ कर हम खुद-बख़ुद गुनगुनाये
तंज कसते मजरूह दिल पे अहवाब सारे
सरमाया ज़ख्मों का रखा दिल से लगाये ।

                                  
मजरूह--घायल , 
अहवाब--मित्र 

'' ग़ज़ल ''

ग़ज़ल 

महक से हो गई तर हमारी गली
उनके आने की आहट हवा दे गई,

जिस्म की डाल पर रंग चढ़ने लगे
बेसबर से नयन राह तकने लगे
ख़ुश्बू राहे-जुनूँ पर जहाँ ले गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

खुली आँखों में सपने संवरने लगे
रात भी आज दिन मुझे लगने लगे
शबे-तारीक में चाँदनी जवां हो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

हरे हो गए शज़र उनके पदचाप से 
ख़िज़ाँ के फूलों पर सुर्ख़ी आने लगी
ख़ुशी लग कर गले से घटा हो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

प्यार में जाने क्या सिलसिले ये हुए
कंपकपाये थे जो लब गिले के लिए
करीब आते ही जाने कहाँ खो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

छाँह आग़ोश की पाये अरसा हुआ
बाँहों में भर नेह से जब मन को छुआ
हर छुवन दर्द की अचूक दवा हो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

लौटकर शाद आये घऱ मेरे सनम
शाम सुरमई गुलाबी सवेरा हुआ
सरे-मिज़गाँ बिठा कर रवा हो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

टूटकर शाख़ से यास थे हम-नफ़स 
सद-गुहर पा फ़िरोजां हुई शैल अब
जीस्त वीरां ताबिन्दा-पाईन्दा हो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

अर्थ--
राहे-जुनूँ--पगलाए हुए रस्ते ,शबे-तारीक--अँधेरी रात
शाद--प्रसन्न ,सरे-मिज़गाँ--पलकों पर ,
रवा--प्रभावित ,यास--मायूस ,सद-गुहर--हजारों मोती ,फ़िरोजां--चमक ,
ताबिन्दा--चमकदार ,पाईन्दा--स्थाई ,
                                                              शैल सिंह






ईश्वर की लीला'

  ईश्वर की लीला'

बहुत कुछ दिया है यूँ तो खुदा ने 
तृप्ति नाम की चीज मगर पास रख ली ,
अनन्त इच्छायें दीं पवन वेग सी
दमन नाम की चीज मगर पास रख ली ,
रची भोग,लिप्सा,विलास,वासना
शमन नाम की चीज मगर पास रख ली ,
बहुरंगी सपनों के आयाम सजा
जमीं ठोस कर्मों की मगर पास रख ली ,
मन को गढ़ा कितने मनोयोग से 
विभूति मानवता की मगर पास रख ली ,
पत्ता तक हिले ना बिन उसकी मर्जी
वस्तु दोषमुक्ति की भी मगर पास रख ली ,
तज विकार शीश का बोझ उतारें कहाँ
कुँजी निदान की भी तो मगर पास रख ली ,
सुख,शान्ति,अमन,चैन ढूंढ़ते फिर रहे
सन्दूक ऐसे भी धन की मगर पास रख ली,
खामियाँ भी भरीं खुद ही इंसानों में
पिटारा खूबियों का भी मगर पास रख ली ,
सब कुछ हो रहा सृजन के अनुकूल ही 
सर कभी इल्ज़ाम ईश्वर ने कब खुद के ली ।

मर मिटें अपने प्यारे वतन के लिए

मर मिटें अपने प्यारे वतन के लिए 

मर मिटें अपने प्यारे वतन के लिए 
भारत माता को ऐसा ललन चाहिए, 
          वक्त ने आज ऐसी चुनौती है दी
           हमें सद्दभाव समता चलन चाहिए,
माँ के चरणों में श्रद्धा से जो चढ़ सके 
वो चमन का दुलारा सुमन चाहिए,
           विकारों को तज सत्य का बोध हो 
           सुख,शान्ति का निर्भय अमन चाहिए, 
जो भंवर में फंसी पार नौका लगा दे
नाविक की वल्गा में वो बाँकपन चाहिए,
            तमलीन जगत वास्ते आत्ममंथन करें 
            दिल में दीपक जले वो जलन चाहिए,
मेरी कब चाह हीरे,रतन,सम्पदा 
शैल रोटी और कपड़ा,भवन चाहिए ।

बचपन कितना सलोना था

बचपन कितना सलोना था---                                           मीठी-मीठी यादें भूली बिसरी बातें पल स्वर्णिम सुहाना  नटखट भोलापन यारों से क...