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" कविता का विकृत श्रृंगार ना हो "

" कविता का विकृत श्रृंगार ना हो " ऐ मेरे सृजन ले चल मुझे हृदय के भाव प्रवण छांव तले जिसके गहन सिन्धु में लहर लहर अनुभूतियों के सुघड़ सलोने भाव पले तिलमिलाती अभिव्यक्तियाँ जहाँ भावों के सागर में कौंधतीं हिलोरें जहाँ प्रेम का सागर उमगता जहाँ संवेदना की उमड़तीं रसधारें जिसकी हर बूंद में हो तूफां सी रवानी  भरी हो जिसमें जीवन के अनुभवों की कहानी जो अन्तर के क्रंदन को सृजित करे  उर के कोलाहल को जगविदित करे । ऐ मेरे सृजन ले चल मुझे जहाँ शब्दों का अपव्यय ना हो और जबरन शब्दों के आभूषण से कविता का विकृत श्रृंगार ना हो ऐसे भाव उकेरूं जैसे हरसिंगार के फूल झरे  सीपी के मोती सा उद्गार व्यक्त हो काव्य प्रेमियों को भाव विभोर कर सकूं वितृष्णा,उकताहट का ना सार व्याप्त हो  चाह नहीं प्रशंसा के मिथक चन्द शब्दों की जिससे चन्दन सी शीतलता का बोध प्राप्त हो ऐसे प्रवाह का मेरी कविता में भरो उद्बोधन  जिसे पढ़कर मन को ठंडक का आभास हो ऐ मेरे सृजन ले चल मुझे जहाँ कवि मन के अन्तर्द्वन्द का विलाप हो ना अनर्गल ना निकृष्ट प्रलाप हो जहाँ ...