" अव्यक्त रहने दूं उन्हें या "
" विरह श्रृंगार पर कविता " सूरज निकल चला गया दिन बीता साँझ ढल गई जलतीं रहीं दो पुतलियां जिसमें झुलस मैं जल रही। आये ना प्रियतम तुम चमन के भरी बहार में छोड़कर विरानियां गईं बहारें भी इन्तज़ार में। नयन घटा हुए हैं सांसें उखड़ रही हैं यशोधरा सी बैठी गुन रही बेबस आँखें उमड़ रही हैं। वेदना को है कसक ये भी असहनीय मौन तेरा निर्मोही हो गये हो तुम वियोगी मन बना के मेरा। प्रेम का प्रसंग लिखूं या दावानल विरह का विलाप ग़र समझ...