" विरह श्रृंगार पर कविता "
सूरज निकल चला गया
दिन बीता साँझ ढल गई
जलतीं रहीं दो पुतलियां
जिसमें झुलस मैं जल रही।
आये ना प्रियतम तुम
चमन के भरी बहार में
छोड़कर विरानियां गईं
बहारें भी इन्तज़ार में।
नयन घटा हुए हैं
सांसें उखड़ रही हैं
यशोधरा सी बैठी गुन रही
बेबस आँखें उमड़ रही हैं।
वेदना को है कसक ये भी
असहनीय मौन तेरा
निर्मोही हो गये हो तुम
वियोगी मन बना के मेरा।
प्रेम का प्रसंग लिखूं
या दावानल विरह का
विलाप ग़र समझ सको
खोलूं राज की गिरह का।
भावनाओं की आबरू भी
यवनिका में रख सकूं ना
हृदय तो ले गये हो तुम
तंज स्पंदन के सह सकूं ना।
असंख्य किश्तें हैं अपूर्ण
आवेग के विधा की
अव्यक्त रहने दूं उन्हें या
चढ़ा दूं भेंट समिधा की।
आ स्वयं सम्भालो तुम
राजगद्दी इस वजूद की
रियासतें ना जीने दे रहीं
सूने दिल के दहलीज़ की।
वो कौन सी विवशता
है कौन सी वो सरहद
जो राह रोके है खड़ी
बढ़ा रही है पीर अनहद।
तपेदिक सी तेरी याद में
तपा कर सुकोमल वदन
सागर सा गहरा दर्द संजो
रहूँ पर्वत सी पीर में मगन।
ना छज्जे पर बैठे कागा
ना आए हारिल नजर कहीं
पाती लिख मृदुभाव की
कैसे प्रेषित करूं खबर नहीं।
तेरे रंग में रंगी चुनर
तुझे कैसी अदा करुं मैं पेश
मुझमें नहीं टसन वो हुनर ।
यवनिका--परदा
समिधा--हवन की लकड़ी
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह