रविवार, 5 मई 2019

नई बहू का आगमन पर मेरी कविता

         नई बहू का आगमन 


छोड़ी दहलीज़ बाबुल का आई घर मेरे
बिठा पलकों पर रखूँगी तुझे अरमां मेरे ।

तुम्हारा अभिनंदन घर के इस चौबारे में
फूल बन कर महकना भवन ओसारे में
आँगन उजियारा हो चाँदनी जैसा तुमसे 
पंछियों सा चहकना घर कानन हो जैसे ।

लो ये चाभी के गुच्छे संवारो घर अपना
बस ये ही गुजारिश सबका मान रखना
नया परिवार,परिवेश नया घर यह सही
रखना सामंजस्य यहाँ कुछ पराया नहीं ।

सबसे सौभाग्यशाली समझना खुद को
तुम भी मूल्यमान हो है जताना मुझको
पुत्रवधू कह पुकारूं तुुझे अन्याय होगा
जोडूं माँ-बेटी सा रिश्ता तो साम्य होगा ।

न कोई बंधन यहाँ न कुछ थोपना तुझपे
करना इज्ज़त सबका बस कहना तुझसे 
पल्लवित,पुष्पित हो चहचहाना तूं आँगने
ताकि बाँट सकूं सुख-दुःख मैं तेरे सामने ।

अक़्स देखना तुम मुझमें अपनी मातु का
दूंगी खुशियां दुगुनी आँचल की छांंव का  
कुछ सिखलाऊं,समझाऊं दूं मैं नसीहतें
खुशी से स्वीकारना अनुभव की ये नेमतें ।

शताब्दी से प्रचलित नकारात्मक चर्चों पर 
डालें नया आवरण सास-बहू के रिश्तों पर 
ससुराल,पीहर में हो ना फ़र्क़ महसूस तुझे 
वात्सल्य के सानिध्य से हो तूं अभिभूत ऐसे ।

हो दुविधा,आशंका कभी संशय या रूसवा
सुलझाना आत्मियता से सब गिला,शिकवा
इक दूजे से आहत ना हों ऐसा सम्बन्ध रखें 
सौहार्द्र परस्पर मेें हो आत्मीय अनुबंध रखें ।

                                    शैल सिंह



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