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जुलाई 21, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बेटियाँ घर की रौनक

       बेटियाँ घर की रौनक जिस घर में सुता जैसी रत्ना ना हो जिस घर में धिया जैसी गहना ना हो उस चमन का कोई पुष्प पावन नहीं जिसे अनमोल ऐसी नियामत मिली उस सा भाग्यवान धनवान कोई नहीं …। दहेज़ की सूली चढ़ती बहू बेटियाँ मारी जातीं अजन्मीं केवल बेटियाँ अंकुशों की हजार पांवों में बेड़ियाँ जिस आँचल अनादर तेरा हो परी कभी आँगन ना गूँजे उस किलकारियाँ …। जिस घर …। मानती हूँ कि धन तूं पराई सही रौनकें भी तो तुझसे ही आईं परी बजी दहलीज़ तुझसे शहनाई परी अपने बाबुल के आँखों की पुतली है तूं भैया के कलाई की रेशमी सुतली है तूं जिस घर …। मेरे जिस्म की अंश तूं मेरी जान मेरे अंगने की तुलसी तूं मेरी जान मेरे बगिया की बुलबुल तूं मेरी जान तुझसे ही चहकता घर आँगन मेरा तेरे अस्तित्व से घर की पावन धरा जिस घर …।  

''भावना''

                , जिसे महसूस कर समझना मुश्किल हो  उसके लिए शब्द कैसे तलाशूँ ? वारिश की बूंदों में जिसे तलाशती हूँ  उसका पता किससे पाऊँ ....।  वो तो खुद धरती से टकरा कर  कतरों में बिखर जाती हैं अपना ही मुकाम ना पहचानने वाली  धड़कनों के भरोसे ,किस रस्ते चलूँ  और मंजिल की उम्मीद कैसे बंधाऊँ ।  बस बेतरतीब सी जिंदगी की नाउम्मिदियों में  वो हलकी सी चमक खोज रही हूँ …। जिसकी पल भर की रोशनी में  अगली गली में पड़ते पड़ाव को पहचान सकूँ . कहानियां तो बेहिसाब हैं  बस उनके अनंत ओर-छोर से हिस्सा काट लूँ  तो सफेद पन्ने पर स्याही का दाग लगाऊं, बिखरे ख्यालों को समेट भर लूँ  किसी किस्से के बंधन में या भरने दूँ  उन्हें उनकी साँसों में  खुले आकाश की असीमित रंगीनियाँ ?  बस उकेरती रहूँ यहाँ-वहां पन्नों पर  कभी यूँ ही फिसल पड़े मन के उलझे भंवर , फिर इंतजार करूँ फुर्सत के लम्हों का जब बैठ...

''उस हिस्से की एक कड़ी मैं भी''

        ''उस हिस्से की एक कड़ी मैं भी'' घर के सभी लोग गमगीन माहौल में छत पर धूप में बैठे थे सर्दियों का दिन था .दरवाजे की घंटी बजी तो भतीजे मनु से दीदी ने कहा जा देख कौन आया है . मनु दरवाजा खोलकर जब ऊपर आया ,साथ में आने वाला मेहमान भी ऊपर आ गया। देखा सामने विवेक भैया खड़े हैं .अम्मा के मरने की खबर सुनकर विवेक भैया मेरे घर आये थे। उस वक्त मैं भी वहां मौजूद थी। वह अकेले नहीं आये थे साथ में उनका बेटा भी था,मुझे देखकर उन्होंने बेटे से कहा था बेटा बुआ का पैर छूकर आशीर्वाद ले ये तेरी बुआ हैं। मैं विवेक भैया को बहुत लम्बे अंतराल के बाद देखी थी,वैसे मिले तो वो थे अपनी चिर परिचित अंदाज में ही पर मुझे ही कहीं से एक कोना खाली-खाली सा प्रतीत हुआ था, जिसमें अतीत की ना जाने कितनी झलकियाँ थीं। आज उन्हें इस रूप में देखकर मेरा पन्द्रह साल पीछे जाना लाजिमीं ही था।     इन पंद्रह सालों में क्या हुआ मुझे नहीं मालूम,जब इतने बड़े बेटे के साथ उन्हें देखी तो यही अंदाज लगायी की जरुर इनका व्याह...