" रिश्तों पर कविता "
" रिश्तों पर कविता " गिनती की साँसें हैं पल में माटी में मिलना तय है चार दिन की ज़िंदगी है रखना क्यों अहं औ मैं है टूटकर बिखरती जा रहीं हर शाख़ से हैं डालियाँ रिश्तों की दिनों-दिन कमज़ोर हो रही हैं बालियाँ था कभी जिन रिश्तों में मृदुल मखमली एहसास उनमें घुलती जा रहीं कड़वाहटें कहाँ गई मिठास । दुश्मनों से बढ़ दुश्मन हुये जा रहे अपने ही लोग हर पग जो साया से थे साथ तोड़ रिश्तों की डोर पड़ती जा रहीं दरारें उर में,खींची जा रही दीवार तोड़ धागे ऐतबार के बो काँटे नफ़रतों की हजार । रक्त के अपने रिश्तों से हो रहा परायों सा बर्ताव बेबुनियाद के रिश्तों से रख के अपनों सा लगाव इस तरह उलझ ना रिश्तों से मन में गाँठ बाँधिए रिश्ते जीवन के अनमोल अंश अहमियत जानिए । क्या मोल रिश्तों का जब-तक समझ में आएगा हो चुकी होगी देर बड़ी हाथ मलमल पछताएगा होता काँच से भी कोमल सम्बंधों का महाजाल ग़र सम्भाल कर रखें इसे हो जाये जीवन निहाल । जिन रिश्तों को निभाने में गुजर जाती उम्र सारी वही हो जाते स्वार्थी, ख़ु...