भीषण जलावृष्टि पर कविता
अब तो लेले सन्यास कुढ़-कुढ़ इस क़दर बरस ना
हिलस गये बूढ़े वरगद भी कुछ तो खाले तरस ना ।
जल आप्लावन चहुँओर विध्वंस हुआ सारा सपना
सभी जलाशय उफन रहे हैं दरिया में उठा सैलाब
बरबाद बुने ताने-बाने घटा अब तो छोड़ बिफरना ।
जिस मचान पे करते मस्ती उड़ाये सुग्गे औ बगुले
तेरे विनाश में उजड़े घरौंदे लाड़ तेरा बड़ दुखदाई ।
घुसा चौहद्दी में पानी दूभर कीं किच-किच दालानें
अनुष्ठान हुए थे वृष्टि लिए अब नभ से ओरहन ताने
औषधि खालो घटाओं अजीर्ण की बवाल ना काटो
कर दिया नगर-डगर जलमग्न छोड़ो कहर बरपाने ।
बाज आओ ना करो दुःखी ना करो ऐसी बदगुमानी
कहीं अतिवृष्टि कहीं अनावृष्टि शुष्क जमीं है परती
किसी दिन ऐ मेघा जरा तुम भी उपवास तो रखती ।
शैल सिंह