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कुछ बंद

कुछ बंद ऐ ख़ुदा --                   ना तो हीरे रतन की मैं खान मांगती हूँ                      चाँद,तारे,सूरज ना आसमान मांगती हूँ                   मेरे हिस्से की धूप का बस दे दे किला                       जरुरत की जीस्त के सामान मांगती हूँ । फाड़कर ना दे छप्पर कि पागल हो जाऊँ      रूठकर ना दे मन का कि घायल हो जाऊँ अपने दुवाओं की सारी कतरनें बख़्श देना      कि तेरी बंदगी की ख़ुदा मैं क़ायल हो जाऊँ ।               गुज़ारिश है आँखों में वो तदवीर बना देना                     मेरी ख़्वाहिशों का मेरे ...

पुरनिमा की रात का पैबन्द आँखों में सी रहे थे

कश्मीर में मतदान के दौरान  ..... रुख़ बदल रही हवाएँ रुत बदल रही फ़िजां की ख़ौफ़ की जद से निकल लौ जली नई शमां की देखिये वादी-ए-कश्मीर मे मतदान हो रहा है । जाग उठा ज़मीर बदली सोच अब आवाम की बर्फ सी पिघल के फांस भी खड़ी हुई चट्टान सी देखिये वादी-ए-कश्मीर का इम्तहान हो रहा है । आतंक के साये में जीस्त मर-मर के जी रहे थे पुरनिमा की रात का पैबन्द आँखों में सी रहे थे देखिये वादी-ए-कश्मीर का यूँ विहान हो रहा है |                                                     shail singh

मज़ार दियना जलाने फिर क्यूँ आये हो

मज़ार दियना जलाने फिर क्यूँ आये हो खड़े फ़ख्र से तुम नुमायां कई घाट से दम वफ़ाई का भरने फिर क्यूँ आये हो , क्या लौटा पाओगे यास के गुजरे दिन  गिन उँगलियों पे काटे हैं जो रात-दिन  बहारें तो आईं बहुत रंग भरने चमन  पर इंतजार की जिस्म पर थी चुभन  खण्डहर सी हुई अब वो नुरे-ए-महल  झाड़-फानूस लगाने फिर क्यूँ आये हो ।  ओढ़ीं ख़ामोशी,दीवारों की हर सतह  जो सजी संवरी थी हवेली तुम्हारे लिए  नाम की तेरे माला जो सांसों में थी  उलझकर भी गुँथीं थी तुम्हारे लिए  हो गई है मोहब्बत इन तन्हाईयों से  ऐसी आदत छुड़ाने फिर क्यूँ आये हो ।  ख़्वाहिशों पर परत चढ़ गई जंग की  हसरतों को बदा पर दफ़न कर दिया  कोई शोला था भड़का वदन में कभी  ढांपकर लाज़ का था कफ़न धर दिया  जिस चाहत की अब ताब मुझमें नहीं  ताब फिर वो जगाने फिर क्यूँ आये हो ।  इक पहर रोशनी की जरुरत बहुत थी  अब अँधेरे में रहने की लत पड़ गयी है  कभी सरे...

लाड़ली सुता का इक फ़कीरा मैं पिता हूँ

लाड़ली सुता का इक फकीरा मैं पिता हूँ न इंसान सुन रहा है न भगवान सुन रहा है  धीरज भी अब तो जैसे बलवान खो रहा है।  धूर्त वक़्त का परिन्दा हाथों से निकला जाए किसको बताएं कैसे क्या अंतर की वेदनाएं न शुभ काम हो रहा न शुभ विहान हो रहा है, धीरज  ....। पल-पल पहाड़ जैसे,लगती लम्बी काली रैना  आँखों से नींद गायब,ग़ायब सुकून और चैना न सुजलाम हो रहा न कुछ सुफलाम हो रहा है, धीरज ...। तक़दीर का सितारा आँगन में किस चमन के  बंधेगा साथ बन्धन किसके जनम-जनम के  न शीलवान मिल रहा न दयावान मिल रहा है, धीरज …। लिपटी अंधेरी चादर में लगें चारों ही दिशाएँ गली-गली की ख़ाक़ छानी बुझी ना तृष्णाएँ न मन का मुक़ाम मिल रहा अरमान रो रहा है, धीरज …।  मन की गिरह खोलूं किसकी उदारता के आगे विधाता लेखा-जोखा बेटी के भाग्य की बता दे न अनजान सुन रहा न ही पहचान सुन रहा है, धीरज ...। दुःखी लाड़ली सुता का इक फ़कीरा मैं पिता हूँ लाड़ली की फ़िक्र में ही मैं सोता और...

माटी के रंग

  माटी के रंग  ये हकीकत है आज़ की , माटी से टूटा है नाता सभी का , सोंधी-सोंधी ख़ुश्बूओं से परे , बनावट के आवरण में  वास्तविक गंध को भूल जाना, आज का वातावरण,समाज  एक ऐसा मुखौटा बन गया है  जैसे गुलदस्ते में सजे फुल सरीखा  खिले रहने के बनावटी अंदाज, कैसा मुलम्मा चढ़ा लिया है , खाली उजाड़ होकर भी चेहरे पर , हँसी पर साधनों का खेप डालकर  अन्तर के आंदोलन का मातम मनाते हुए, खोखला विद्रूप मन लिए  कॉस्मेटिक का मोटा लेप चढ़ा कर , अन्तर में माटी की गंध को  सीने से लगाये तड़पना , फलने-फूलने की अभीष्ट चाह  अपनी माटी को तलाशती ज़िन्दगी  क्या है असल ज़िंदगी की ख़ुशी का मानदण्ड  सब कुछ पाकर भी क्या खो दिया है  भौतिकता और आधुनिकता के उसूलों में, कितने कृत्रिम हो गए हैं हम  कृत्रिमता हमें किस कदर आकर्षित कर रही है , स्थाई रस का अभाव  मौलिकता का मटियामेट होना , नैतिकता का पतन होना , कितने नैराश्य और निरंकुश हो गए हैं हम ।  इतने सारे गैजेट्स , संसाधनों के पालनों में झूलते हुए हंसी को तरसते , समूह की तलाश...

ग़ज़ल

               ग़ज़ल  दिल के निगाहख़ाने कभी तो झाँक लेते  इन्तज़ार मौसमे-रंग का करते ही रह गए । जख़्म देके पूछते हैं दर्द होता कहाँ है पूछने से और भी अज़ाब होता जवां है वक़्त की अलामत हर जख़्म हो गए हैं कैसे दिखाएं उनके निशां कहाँ-कहाँ हैं । ख़ुशी के फूल बांटती बज़्में-रौनक थी जो सैले-नज़र ढूँढ़ती हल्काए-ज़ंज़ीर जहाँ है मवाद बनके टीसते हैं सुलूक़ों की दास्ताँ     दिल में असास दमे-आखिर तक जमा है । दामन में नूर हैं तमाम मुअत्तर है ज़िंदगी बू का क्या करें टूटा ख़्वाबों का कारवाँ है दिल के हक़-तलब से वाक़िफ़ ही नहीं जो मतलूब क्या मेरी कैसी इश्तियाकें रवां है । तक़ाज़े क्या ज़िन्दगी के क्या ख़्वाहिशें मेरी कैसे कहें जुबां से किया हर्फों में सब बयां है दस्तो-दर भटक रहे हैं ख़ुशी की तलाश में वो भी जानते हैं बखूब जो दोनों के दरम्यां है । हाले-दिल सुना सके ना ग़ज़ल बना लिया   गुमनाम हसरतों का गवाह आईना यहाँ है कैसे करे साझा हया,उरियानियों की बातें         रेखाएं कुछ सीमाओं की,बन्द रखा ...
मन के शोर हैं या हक़ीक़त नहीं जानती ये बंद हैं या शेरो शायरी मैं नहीं जानती मन के शोर हैं या हक़ीक़त नहीं जानती । ( १ ) रुत बदलती है,मौसम बदलते हैं रोज, दिन महीने और साल गुजरते हैं रोज बस बदलती नहीं है घड़ी इंतज़ार की, जाने कितनी गली से गुजरते हैं रोज । ( २ ) ग़मों का अम्बार इतना ज्यादा है पास  गैरों के ग़म सहलाने की फुरसत नहीं गैरों की ख़ुशी से सरोकार मुझको नहीं ख़ुशी मेरे दर का रुख़ जब करती नहीं । ( ३ ) सितम ढाए हैं बहुत से सितमगर मगर ज़ख़्म खा-खाकर दिल पर संभलते रहे ग़मों में शामिल हुए नए ग़म हजारों मगर अज़ाब शानों पे रख रेगज़ारों पे चलते रहे । ( ४ ) हवाओं का दरीचे से बेरुख़ी से मुड़ के जाना आवारा सडकों पर सोचों की प्रायः टहलना दिल का परदा हिलाना गवारा भी ना समझा दरे-जाना से लौटकर हरीमे-ग़म में भटकना । अज़ाब -मुसीबतें । शानों--कांधा । रेगज़ारों--रेगिस्तान दरे-जाना- प्रिय के द्वार । हरीमे-ग़म--दुःखों के सहन में ।                 ...

मन के उद्गार

मैं अपने मन की कुछ बात कहना चाहती हूँ बुद्धिजीवी लोगों से ,क्योंकि मैं भी अपनी बेटी के रिश्ते के लिए आजकल इन चोंचलों से अज़ीज आ रही हूँ ,कब लगाम लगेगी इन कुंडली के चक्करों की जोड़-तोड़ को ,ज्योतिषियों की भ्रामक प्रचारों को जिसका जहर टी. वी.पर हर चैनल पर प्रसारित किया जा रहा है इंटरनेट पर पंडितों की साइटों की भरमार है ,जिसे देख सुनकर जनता अंधविश्वासों की शिकार होती जा रही है ,मांगलिक और गुणदोष के चक्कर में लडके-लड़कियों की शादी की सही उमर ही निकलती जा रही है यदि पोथी,पत्रों वाली बातें इतनी ही सच होतीं तो हमारी पीढ़ी के लोग कितने परेशान हुए होते ,पहले हर दम्पति के चार,पांच ,छह ,आठ औलादें होती थीं इतने शिक्षित भी लोग नहीं होते थे कि अपने इतने संतानों की सही डेट ऑफ बर्थ का सही-सही लेखा-जोखा संरक्षित कर रख सकें । टी.वी. पर दिखाए जा रहे वास्तु शाश्त्र कुंडली के दोष गुण के उपाय अच्छे-अच्छों के दिमाग़ का गुड़गोबर कर दिया है ,पहले भी लोग मानते थे पर आजकल की तरह नहीं ,कितनों की दुकानें चल निकली हैं ,शादी व्याह की कित...

मत हमसे हमारी उमर पूछिये

मत हमसे हमारी उमर पूछिये  उमंगें-तरंगे जवां धड़कने हैं अभी अभी अंगड़ाईयाँ लेतीं हिलोरें घनी मत हमसे हमारी उमर पूछिये धुँधला जाये जिसे देख जौहरे-आईना अभी भी बसद रंग हृदय के आबाद हैं कल्पनाओं का व्यापर करती नहीं मैं महफ़िलों में अभी भी नूर की धाक है मन के सितारों का चमकता गगन देखिये मत हमसे हमारी उमर पूछिये । रंग और रेशा शरीर के हैं जर्जर मगर उजले केशों में शक्ति की वही धार है वहशत वही आज़ भी मेरे हर लम्स में जीस्त वही आज भी अज्जाए-बहार है ढली साँझ,चांदनी का खुशरंग जुनूँ देखिये मत हमसे हमारी उमर पूछिये । सदा वंचित रखा खुद को जिस बात से क़ायम रिश्ता था भींगती सांवली रात से बेमक़सद गंवाई जिंदगी जो मैनें दहर में  अभागिन इच्छाएं जागी अब हो मुखर हैं  मौज़-ए-खूँ देखिये बस रंगे-तरब देखिये मत हमसे हमारी उमर पूछिये । मलय-मारुत लजाएँ गति वही आज भी इन हाथों भुजाओं में है बल वही आज भी धुंधला गई रौशनी जर्जर मलिन गात है ज़िन्दा हासिल-ओ-लाहासील ज़ज्बात हैं नंगे-पीरी शर्मा जाये नैरंगे-नज़र...

मैं सीपी के मोती जैसी

हमराह में साथी नहीं संगी कोई अपना भरे जो रंग गहबर सा अधूरा ही रहा सपना मिले मंजिल मेरी मुझको  अभिलाषाएं भटकती हैं  महत्वाकांक्षा रही सिसकती  उमर पल-पल गुजरती है , गगन के सितारों सी चमकने की कल्पना थी  जमीं पर पांव चाहत चाँद छूने की तमन्ना थी ।  अपनों ने दिखा दिवा सपना  कंचन सा विश्वास ठगा मेरा  खुद की धुरी के चारों ओर  बस डाल रही अब तक फेरा , घायल मन की व्यथा मिटा यदि कोई बहलाता  चाहे अनचाहे सपनों की यदि मांग कोई भर जाता ।  सागर से भरी गागर है  मन रीता-रीता सा ही  मोती सी तरसती तृष्णा  घर संसार सीपी सा ही , टूटे साजों पर गीत अधूरे किस्मत काश संवर जाए  चाहत पर चातक की शायद स्वाति की बूँद बरस जाए ।  कस्तूरी जैसी महक मेरी  ये जागीर न देखा कोई  असहाय साधना की राहें  ऐसी तरूण कामना खोई , घरौंदों को आयाम मिले कब किरण भोर की आएगी  कब कसौटियों पर खरी उतर शख़्सियत गर्द मचाएगी ।  विराट कलाओं क...

मन का सुखौना

मन का सुखौना कब नजरें इनायत फ़ना कब नज़र कब ख़ुशी लब हँसी क्या हमें ये ख़बर । अभी तक तो खिली धूप थी आँगने की बादलों ने चुबौली रुख़ घटा डालकर अभी मन का सुखौना ज्यों डाली ही थी ओदा कर दी घटा और भी झमझमाकर , कुछ सिमसिमाहट होगी दूर यह सोचकर भांपकर मिज़ाज़ मौसम का रुख देखकर मन की तिजोरी से सारा जिनिस काढ़कर दहिया लगाई ख़ुशफ़हमी दिल नाशाद कर ,  रुत बदलती है रंग पल में जाना ना था  रुख हवा का किधर हो कब जाना ना था धूप बदली की कितनी सुहानी लगी थी  ये खेल धूप-छाँव का दिल ने जाना ना था , ग़र अहसास होता फ़िजां के इस अंदाज़ का  साँसें महकी ना होती बहकी पुरवा ना होती  कैसे होते हैं शाम औ सुबह रूप के जान लेते  ग़र शमां को रौशनी की ऐसी परवा ना होती , फ़ुर्सत से मिली थी नज़र जो दो घड़ी के लिए  ख़ुलूस मिला उल्फ़त मिली दो घड़ी के लिए  मेरी महफ़िल में बैठ भी कभी दो घड़ी के लिए  देख अजनवी की तरह ही सही दो घड़ी ...

मन से मावस की कारी रात भगाएं

मन से मावस की कारी रात भगाएं आओ मिल जुलकर हम सब नेह का दीप जलाएं तम् के नीचे भरें तमस के आँचल उजियारा ,घर-घर पूनम का चाँद बुलाएं स्नेह में बोरें माटी का तन, मन से मावस की कारी रात भगाएं , दुःख दर्द गले मिल बांटें आओ, इक दूजे के गम शूल खींचकर सुपर्व मनाएं शुभ दीवाली, कण-कण प्रकाश की लौ बिखेरकर , हम करें बात तो लगे गीत सा, फुलझड़ियों के जैसे फूटे सितारे, रोमांच भरा हो मिलन हमारा ,लगे पटाखों की लड़ियों से नज़ारे , मिलें बंधुजनों के घर-घर जाकर, मतभेद मिटाकर देवें बधाईयाँ खुशियों की मन में लहर जगाएं खाएं खिल बताशे औ मिठाइयाँ , महान पर्व ये बरस-बरस का, कड़वाहट का आओ म्लेच्छ भगाएं स्नेह धार से नवकिरण बार हम एकता का जग-मग दीप जलाएं ।                                                                                    ...

''शायद यही हो मेरा आत्मबोध-आत्मबोध''

शायद यही हो मेरा आत्मबोध-आत्मबोध लेखनी लिखने को आतुर  पर शब्द छिन गए हैं  उसके अस्तित्व की सार्थकता  स्त्रीत्व के दायरे में जकड़ी  अपने निजत्व से निकलकर  स्वयं को पहचानने के लिए व्यग्र  पर घर की सीमा  परिवार की गरिमा  कायम रखने के लिए  उसकी चिर-परिचित  धरोहर का भष्म होना  क्या यही नियति है ।  सबके लिए दीपशिखा सी जलते रहना  उसकी तपिश में केवल  नारी होने की जड़ता का द्वन्द  शेष उसका अपना ।  कितना तल्ख़ी भरा है स्त्रीधन, अर्थहीन रेगिस्तान सा विवश  नैसर्गिक विकास  क्रियात्मक ऊर्जा को  हवा दे देकर  दाल भात के वाष्प में  प्रतिभा का शोषण  पूर्णता को निहलती रसोई  आत्म विश्वास का  तार-तार होते देखते रहना  क्या यही है उसकी नियति ।  पर नहीं,एक तलाश है  इस लीक से हटकर  मन्सूबों को निखारने के लिए  जो अपने हैं उसके अपने  पथरीली पगडण्डियों पर चलकर  ...

शुद्ध भाव कुम्हलाने लगे क्यों

शुद्ध भाव कुम्हलाने लगे क्यों शुद्ध भाव शुचिता से सींच ले रे मन मानव , उत्कृष्टता भरी कूट-कूट कर अन्तर्जगत के भाव हैं इसमें  , सादा जीवन उच्च विचार रख  सम्पन्नता की खान है इसमें अवमूल्यन कर क्षरण कर रहे हो क्यों भाव जगत को शुष्क बनाकर भौतिकता,सम्पन्नता श्रेठ हो गई आज़ उच्चता विचारों की छोड़कर , शुद्ध भाव कुम्हलाने लगे क्यों देख बाह्य जगत की चमक-दमक प्रेम,दया,परोपकार,सहिषुणता पर हावी हो गई सम्पन्नता की धमक , हर गाँव,नगर,घर,गली,मोहल्ला सभी ग्रसित हैं इससे सर से पांव इस दौड़ में शामिल होकर सब ही भूल गए हैं अन्दर झांकने के ठाँव ।                                            शैल सिंह 

मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते

मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते आती अवरोधों की तोड़ जंजीरें सब कभी आवाज़ दे तुम पुकारे तो होते , टूटे दिल की किरिचें संभाले है रखा जोड़कर रेज़ों को तुम निहारे तो होते मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते । भोली मस्ती थी नादां से अहसास थे नाज़-नखरे कभी तुम संवारे तो होते , मोम की गुड़िया सी मैं जाती पिघल प्यार की आँच से तुम दुलारे तो होते , मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते । छोटी-छोटी मेरे ख़्वाहिशों की मीनारें मन समंदर उतर तुम विहारे तो होते , हद-ए-बेरूख़ी पर सब्र का बांध तोड़ा गाल गीले कभी तुम पुचकारे तो होते , मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते । भावों की बह नदी डूबी  उतरायी मैं  भावों की लहरों पर तुम उतारे तो होते , जग के ताने, छींटे, व्यंग्य,फिकरे सहे तंज के झंझावात से तुम उबारे तो होते , मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते । तुम ज़िद पर अड़े मैं अपनी उम्मीद पर कशमकश की ढहा तुम दीव...

मन के द्वारे लगा सांकल सारी दुनिया

मन के द्वारे लगा सांकल सारी दुनिया हँसी के फौव्वारे ठहाकों की दुनिया कहाँ खोई जाने चौपालों की दुनिया , ठहर सी गई आ कहाँ ज़िन्दगी ये मन के द्वारे सांकल लगा सारी दुनिया , गुड्डे-गुड़ियों का खेल बन्ना-बन्नी के गीत थाप ढोलक के नाचती नज़ारों की दुनिया , त्योहारों की रौनक वो गँवईं का मेला लकठा,जलेबी,फुलौड़ी,गुब्बारों की दुनिया , चवन्नी,अठन्नी में सारे ख़ुशी के सामान  ख़रीद सकती कहाँ अब दौलत की दुनिया , गिल्ली-डंडा,कबड्डी,ताश की वो दोपहरी खेत-खलिहान,बगिया चहकती वो दुनिया , नेट,मोबाईल चाण्डालिन टैब चुड़ैल टी.वी ने चट कर दी सामाजिक समरसता की दुनिया । लकठा-बेसन का बना हुआ गुड़ में पगा                                                           शैल सिंह

गिर्दाब में है नैया

गिर्दाब में है नैया दर-दर भटक रही अर्से से आसेबों से बचा ले कहाँ है मेरी मंज़िल,मंज़िल से खुद मिला दे , जिस चीज की तलाश में पागल बनी हूँ फिरती चुपके से आके फूल वो आँचल में खुद गिरा दे , लड़खड़ाती आस ,वक़्त के गिरदाब में है नैया बुझती हुई उम्मीदों के पलक दीप खुद जला दे , पड़ गए हैं आबले अब तो धैर्य के भी पाँव में अज़्मे-सफ़र में रब अमां के ग़ुंचे खुद खिला दे , ना असास मांगती हूँ ना शम्सो-क़मर ही माँगा नवाज़िशों से ख़ुदा किश्ते-दिल को खुद सजा दे , आशाओं की दहलीज़ पर शिकस्त बस है खाई अब किस दर पे जाऊँ ले कांसा तूं ही खुद बता दे , साईल बना दिया है कहाँ-कहाँ ना झख है मारा बेताबी-ए-एहसास,बेदर्द दुनिया को ख़ुद दिखा दे , नकारते हैं वह भी जो नहीं कहीं से मेरे क़ाबिल दबा कहाँ तक़दीर का पुलिंदा सुराग़ खुद बता दे , मौसम के साथ-साथ उम्र खिसक रही पल-पल तक़ाज़े का राग मेरे,अंदाज़ के साज़ खुद सुना दे । आसेबों -भटकन , गिरदाब -भंवर , आबले-छाले अज़्मे-सफ़र--अभिलाषा,यात्रा ,  अमां -संतुष्टि असास...

गुजरे ज़माने की बातें

काल खण्ड की बातें  सब कुछ आज है पास मेरे  नहीं जो साथ रहा करते थे हम बाबूजी की पर्णकुटी में  आनंद विहार किया करते थे , थोड़ा ही सुख था तो भी क्या  दुःख थोड़ा ही किया करते थे  बैठ कुटुम्ब कबीला संग,नव  प्रेरक सद्भाव बहा करते थे , अभावग्रस्त था जीवन फिर भी  लघु दीप जला करते आदर्शों के  अनुकंपा असीम देवों की बरसती  लक्ष्य होते बस रोटी,घर,वस्त्रों के , नत शीश हृदय से जोड़ अंजुरियाँ  प्रभु का आह्वान किया करते थे  देवत्व,साधना,तप,स्तुति में नयना  शाश्वत सुख अभिराम किया करते थे , तृप्ति थी संतुष्टि अपार भी  अवसाद नहीं दबाव था कोई  नेह,दया,अनुराग अलख भाव  मन आँगन करुणा पूँजी बोई , नहीं ईर्ष्या,द्वेष,क्लेश किसी से  ना दंभ,भय,लोभ किसी से कोई  पाट की खाट पर सारी रतिया  सबने सुख की निंदिया सोई , साधन,सम्पति,समृद्धि सब कुछ  हृदय घट ही क्यों है सूख गया  जिस पनघट पर सब मिलते थे,वो  अलमस्त आलम कहाँ म...

कुछ क्षणिकाएँ

हे मेरे अन्तर्यामी प्रभो   जीवन के  सूने स्वप्न सदन में   सृष्टि  की  समरसता  भर  दो   उद्भ्रान्त पथिक के विवर मन में            शाश्वत जीवन का रंग भर दो , लगता मेरा दुःख सबका दुःख है  सबका दुःख मेरा अपना दुःख है  तभी तो  राग एक  है रंग अनेक  और भाव एक है बस अंग अनेक , हम सब जलती आग के ईंधन हैं  मरना सबको इक दिन सत्य यही  क्षणिक मिलन के मोद में भूलें ना  मिलने औ बिछड़ने के तथ्य कहीं , दृढ़ प्रतिज्ञ हों तन-मन से यदि  तो नहीं असम्भव होता कुछ भी  जितनी विकट हो राह लक्ष्य की हो जाती सुगम पथ कंटकमय भी , कभी लक्ष्य नहीं देखता     धुप,ताप,छाँह,बिजलियाँ        पग चल पड़ते हैं बेपरवाह          दिशा की खोज में अन्जान              चाहे लाख काँटों भरी हों...

माँ अम्बे

           माँ अम्बे ये शिलाएं तो बेजान शिल्पी की रचना क्यूँ भटकती रही आज तक द्वारे-द्वारे माँ के दर्शन को प्यासी ये दोनों आखें जगदम्बे बसी जब कि उर में हमारे , मन में विश्वास का एक मन्दिर बनाकर कल्पनाओं में साकार प्रतिमा सजाकर सच्ची लगन का दीया,धूप,चन्दन,अगर अखण्ड श्रद्धा की रोली,अक्षत चढ़ाकर , विश्व संताप के शमन को हवन हैं किए सुख शांति औ समृद्धि अमन के लिए आरती भी उतारी पूजन,अर्चन किया शीश चरण में झुकाया नमन के लिए , जग की नैया डांवाडोल अब हो रही देवभूमि से संस्कृति विलुप्त हो रही हम सबकी आधार माँ बस तू-ही-तू टूटी कश्ती की पतवार इक तू-ही-तू , दोनों कर जोड़ती अर्चना सुन ले माँ स्याह फैला अँधेरा धरा पर मिटा दे मन से मन के सभी टूटे तार जोड़कर प्रेम की जग में पावन सी गंगा बहा दे , मन के दुर्भाव कर भष्म नैन ज्वाल से जग में सद्भाव भर दे अभय हस्त से हम सन्मार्ग पर ही सदा चलते जाएं कभी जिसपे न आँधी औ तूफान आए , भाव भक्ति का भर सदाचारी बना स्वार्थ सारे मिटा परोपकारी बना शिष्य तेरे सभी स...

''अपनों ने जो दर्द दिया''

अपनों ने जो दर्द दिया कहना तो चाहुँ बहुत कुछ मगर सम्भल जाये ज़ुबाँ तो मैं क्या करूँ , शब्द शिकवे के बड़े ही लचीले यहाँ अर्थ का अनर्थ ना हो जाए कहीं मोड़ एक पड़ाव पर जो ठहरे अभी हैं परे हटकर कुछ हो ना जाये कहीं मैं अनुरक्त उनकी वो समझ ना सके भ्रान्ति मन में उठे तो मैं क्या करूँ । लाख दे दो हमें तुम बद्दुवाएं मगर साये से अपने विरत ना करना कभी मुझसे प्रश्नों की झड़ियाँ लगाने से पहले अरे परखा तो होता विश्वास को भी पृष्ठ पीछे क्या-क्या गुल खिला दिए गये  आप मुझसे छुपाएं तो मैं क्या करूँ । उस ग्रन्थि को कैसे सुलझाऊँ भला,जो निपुणता से रंग-रंग में बोई पिरोई गई मिलेगा कहाँ रंग-रोगन खुद ही बता दो पालिश कला में ये जुबां जो डुबोई नहीं मुझे तूलिका में सही रंग भरने ना आया हजार रंगों की ये दुनिया तो मैं क्या करूँ । अब समझने को बाक़ी कुछ भी नहीं भाषा भावों की आती है पढ़नी मुझे विवश धैर्य का ज़ाम थामे मैं घुटती रही सही समय की प्रतीक्षा ने रोका मुझे कौन कितना ग़लत कौन कितना सही आप इससे अन्जान हैं तो...

नक़ाब पर ग़ज़ल

नक़ाब पर ग़ज़ल  चलती थी सड़कों पे बेनक़ाब हुस्न  ने  परदा  गिरा  दिया  जब   याद  ज़माने  ने  मुझे  उम्र  का  दरजा दिला दिया ।  क़ैद कर लो हिज़ाब  में जरा   ये शोख़ अदाएं ये मस्त जवानी  कह - कह कर बुज़ुर्गों  ने  मेरे ज़िस्म का ज़र्रा-ज़र्रा जला दिया ।  मुड़ -मुड़  के  देखते  थे  लोग  जिस गली से  कूच करती थी  मेरी  बेबसी का ऐ  खुदा  तूने  अंजाम  ये कैसा  सिला दिया ।  इस बेबसी  में बतायें ज़नाब  मुस्कराएं तो भला हम  कैसे  कहाँ से आई ये पाग़ल शबाब   जो हमें परदानशीं बना दिया ।  रुख़ पे कैसा लगा रूवाब ये  किन अल्फ़ाज़ में कहूँ लोगों  इस बेकसूर  नूरे हूर  को बस  तसब्बुर का आईना बना दिया  ।                                ...

कुछ शेर

             कुछ शेर छोड़कर अपना सामा शहर आपके छोड़कर जब चली मैं शहर आपका अहदे-वफ़ा के महकते रस्ते वो लम्हें  साथ आया याद का कारवां आपका , तेरी अता करूँ या परस्तिश ऐ मौला कभी तो गुजारिश मेरी भी सुन ले भर दे झोली मेरी भी मता-ए-ऐश से मुज्ज़तर बहुत हूँ तारीक मेरा हर ले , भर दिए वक़्त ने तो हर ज़ख़्म लेकिन  वक़्त गुजारने में क्या से क्या गुजर गई क्या मालूम उन्हें शबे-फ़िराक़ की सदा ख़ामशी ना जाने क्या-क्या निगल गई । अता--तारीफ़ , अज़ाब--मुश्क़िल , मता-ए-ऐश--सुख चैन की पूंजी मुज्तर--घायल,दुखी,  तारिक--अँधेरा,  शबे-फ़िराक़--जुदाई की रात                                    शैल सिंह   

हे प्रभो

हे प्रभो  आस्था श्रद्धा की अविरल बौछार प्रभो जलधार समझ कर पी लेना , मेरी निष्ठा,नैतिकता,पुनीत कर्म को प्रभो अगर,अक्षत गंध बना लेना , मेरी साधन क्षमता ही तेरा नैवेद्य प्रभो सम्पदा का चन्दन घिस लेना , करुणा दया सद्दभाव समझ भोग प्रभो सद्द्गुणों का दीप जला लेना , चरण रज सामर्थ्य का पुष्प अर्पित प्रभो अनुकम्पा असीम बरसा देना , अस्तित्व तेरा जग में है अन्तर्यामी प्रभो अद्वैत चमत्कार दिखला देना , मन का मनोरथ तिरोहित कर देना प्रभो विश्वास बलवान बना देना ।                                                    शैल सिंह 

जाने क्या हश्र हो

जाने क्या हश्र हो  ओ मेरी गुड्डी,तारा,मैना,राना ना अँखियों में ख़्वाब सजाना  सात समन्दर के उस पार का  धोख़े फ़रेबी नीरस संसार का , सब्ज़बाग के कितने रंग दिखा ले जायेंगे बहेलिये बहला कर  मक़सद हासिल कर देंगे छोड़  हाशिये पे बदनसीब बेहाल कर ,                                  बजेगी शहनाई द्वारे ढोल नगाड़े  भाड़े के टट्टू आएंगे बाराती सारे विश्वास छलेगी छल भरी दुनिया  ठगे से मलेंगे हाथ हितैषी बिचारे , इतनी बेताब ना हो अरे बालाओं  विदेश की सैर लिए कर पीले हाथ  जाने क्या हश्र हो मंजिल पर तेरी  पता चलेगा ख़्वाब बिखरने के बाद  ,  किससे करेंगी बयां हाले-दिल शैल सब अवरुद्ध मार्ग जब हो जाएंगे चमक-दमक दम घोंटू आबो-हवाएं निगलेंगी अपने भी पराये हो जाएंगे , जब असलियत का होगा पर्दाफ़ाश  क्या होगा तूफानों में घिर जाने पर  निष्ठुर परदेश भी देगा दगा गुड़िया...

उनका कोई मुझे पता दे

उनका कोई मुझे पता दे काशी क़ाबा,मंदिर-मस्ज़िद औ  अज़ान कुरान सब देख लिया शंख-घंटियाँ,पूजा-पाठ,गीता ग्रन्थ, वेद पुराण सब देख लिया दान-पुण्य कर पितृ पिण्ड दान कर  चारों धाम सब देख लिया कर्म प्रधान है फल देंगे भगवान  कर श्रमदान सब देख लिया कहाँ गए ईसा,रहिमन,राम  सबका भज नाम सब देख लिया कहाँ है अगम अगोचर अन्तर्यामी का  ग्राम आकर कोई मुझे बता दे लिख भेज दूँ मन की सारी दास्तान  उनका कोई मुझे पता दे ।                                                                     शैल सिंह 

इंतज़ार कीजिए

इंतज़ार कीजिए बदल रही है आबो-हवा,फ़िज़ा मेरे देश की जल्द ही आएंगे अच्छे दिन इंतज़ार कीजिए भूखमरी मिटेगी ग़रीबी भी दूर होगी देश की ज़ीस्त में सबके आएगी बहार इंतजार कीजिए इक दिन मुल्क़ होगा रौशन अमन के चराग़ से, जुल्मों-सितम की ढहेगी दीवार इंतजार कीजिये , ना होंगे आँख में आँसू किसी मजबूर,बेबस की दौर आएगा ऐसा भी बरखुरदार इंतजार कीजिये , जमीं उगलेगी सोना सौ गुना खेती लहलहाएगी खिलेंगे फूल ख़ुशी के उर के द्वार इंतजार कीजिये, ना ही कोई आँख तरेरेगा ना सहेंगे धौंस किसी की अजी करेंगे दुश्मनों को खबरदार इंतजार कीजिये, हमारे लुत्फ़ो-करम के आधीन नत विश्व भी होगा कभी सुनेंगे बुलेटिन पर समाचार इंतजार कीजिये , अभी तो हुए हैं बस जुम्मा-जुम्मा चार दिन ज़नाब ना कीजिये इतने प्रश्नों की बौछार इंतजार कीजिये , जिसके आवाज़ में जादू अंतर्मन छू लें जिसके भाव देश को मिला ऐसा नगीना दमदार इंतजार कीजिये ,                                    ...

दहशत में है गाँव

 दहशत में है गाँव जबसे खाद्यान्न का देश में बढ़ा उत्पाद नरभक्षी भेड़ियों सा भयानक हो गया इंसान  डर है भूख क्षुधा की कहीं और ना बढ़ जाये  आदमखोर आदमी और भी हो जाये हैवान , वह युग नहीं देखा इस पीढ़ी ने जिसमें लोग    एक-एक दाने के लिए थे असहाय मोहताज़  सतुआ,भुट्टा,ककड़ी,खा कभी चबैना रस पी  मेल-भाव से ख़ुश रहते साथ,उम्दा था अंदाज़ , मुँह का कौर निवाला रख कठिन जतन से  ख़ुद रुखा-सूखा रह बच्चों का भरते थे पेट  हँसी-ख़ुशी से दिन बीतते बैर-भाव ना द्वेष  आज सक्षम होकर भी सब कुछ मटियामेट , पिचके गालों पपड़ियाए होंठों पर भी तब तो गुरबत में भी खिला करती थी हँसी मुस्कान  मिल बैठ के दुःख सुख सब साझा कर लेते थे सजती थी दोनों जून ठिठोली की हॉट दूकान , निर्भीक,निडर सोया करते थे खुली हवा में लोग,बाग़-बग़ीचे,ट्यूबवेल पर नीम की छाँव बिजली,बत्ती ना घर पंखा,डर से कैसे आज़ कोठरी भीतर दुबके रहते दहशत मे...

कथन मोदी जी का

कथन मोदी जी का  मैं एक आम आदमी हूँ मुझे आम ही रहने दो  जो मुझमें खास है वही ख़ास  मुझमें वही ख़ास रहने दो, छू लूँ बुलंदी रहे पांव मगर  जमीं की हरी भरी घास पर  ईमानदार,साखदार बनूं  रहे आँख समग्र विकास पर, देश सेवा,जन सेवा में रत रहूँ सरलता हो संग मेरे हो दूजी  सहनशीलता रहे मेरा आभूषण  ताज़िन्दगी इमान रहे मेरी पूँजी, चाय बेचना ग़र गुनाह है  तो ये गुनाह बार-बार करूँगा  मिले मरने के बाद जन्म अगर  चाय वाला ही कलाकार बनूँगा, चाय ने तो इस ग़रीब को दिया    जमीं से उठा अर्श पर मुक़ाम  कमाल छोटे से पायदान का   दिया ईनाम में शोहरत,हस्ती नाम ।                                            शैल सिंह 

इक वक्त था जब

मुर्गे की बाँग से प्रारम्भ विहान होता पक्षियों के कलरवों से सूर्योदय का भान होता अब नहीं चहकतीं बुलबुलें भी वैसी बाग़ में मोर-मोरनी के नहीं वैसी रोमांच नाच में कोयल भी मीठी कूक नहीं अब सुनाती रात में अब नहीं वो बात जो पहले बात थी बरसात में  जल रही है दुनिया सारी ना जाने कैसी आग में।                                               शैल सिंह  

''दिल्ली और मुंबई के रेप कांड पर मेरी ये कविता''

दुष्कर्म जैसे वारदात और नाबालिगों को शह देती व्यवस्था पर ऐसे अपराधियों की सजा पर बिना मतलब बार-बार बहस क्यों छिड़ती है।कम उम्र का बच्चा अपना पौरुष बल दिखलाकर एक किशोरी का ,अपने से बड़ी उम्र की महिला का अस्मत तार-तार करने में सक्षम होता है , उस समय तो अपनी उम्र से बड़ा हो जाता है फिर इतने जघन्य अपराध के लिए सजा के वक्त नाबालिग क्यों करार दिया जाता है और सभी लोग मनोवैज्ञानिक क्यों बन जाते हैं ,इसी लिए बार-बार ऐसी घटनाएँ दुहराई जाती हैं ,इसका निदान तभी सम्भव है जब बालिग ,नाबालिग का मोहरा ना इस्तेमाल कर अपराध के बदले कड़ी से कड़ी सजा सुनिश्चित की जाये।  दिल्ली और मुंबई के रेप कांड पर   कलुषित हो रही संस्कृति मानवता का ह्रास होता सुरभित उपवन है आज समरसता का सार खोता चमन से मद में सौरभ,नीला अम्बर बहक गया है हर सुमन,कली-कली जंगल-जंगल दहक गया है। विद्रूप हो गया है समाज का मन फटिक सा दर्पण हृदय पात्र क्यूँ है रीता करो न अधर पे हँसी अर्पण जहाँ विचरते आज़ाद पंछी वहाँ कोला...

हम कश्मीर नहीं देंगे

हम कश्मीर नहीं देंगे चाहे जितनी चले शमशीर हम कश्मीर नहीं देंगे कश्मीर भारत माँ का चीर हम मिटने तस्वीर नहीं देंगे । कश्मीर कोई मसला नहीं कि समाधान खोजा जाये कश्मीर कोई ज़ायदाद नहीं कि व्यवधान बोया जाये अलगाववादी जाके मांगे भीख कांसा लेकर पाकिस्तान से उठ रही ताल ठोंक कर चीख समूचे हिन्दुस्तान से कश्मीर लिए जां देंगे लाखों वीर बनने मन्सूबों की खीर नहीं देंगे कश्मीर भारत माँ का चीर हम मिटने तस्वीर नहीं देंगे । कश्मीर देश की ताव,मूँछ,शान, सिरमौर,जान हमारा है भारत की ममतामयी गोद का अहम अंग आन दुलारा है इतना नाक में मत कर दम ना घोंप घात कर पीठ में तीर कश्मीरी हवा,फ़िज़ा भी मेरी है हद पर फोड़ देंगे नकशीर छलनी कर देंगे टांगे सीना चीर बनने मन्सूबों की खीर नहीं देंगे कश्मीर मेरी भारत माँ का चीर हम मिटने तस्वीर नहीं देंगे ।   कितने नमकहराम भिखमंगे हैं  खुदा के ये फ़रिश्ते धूर्त हैं जाना खाते-पीते भारत भूमि का गाते पाकिस्तान का गाना , हम कहते जियो और ...

गिर-गिर संभल गया

गिर-गिर संभल गया ओ मुझे रिन्द कहने वालों मैंने तो सिर्फ शराब पी है ख़ुद कि वाहयात नज़र देखो जिसने छक के शबाब पी है , मैं तो समां का लुत्फ़ लेकर गिर-गिर संभल गया देख खुद नज़र की करामात सरे-राह क्यूँ फिसल गया , थे अश्क़ मय में शामिल सबने जाम का सुरूर देखा मग़र इस खुमार में क्यों नहीं  किसी ने मेरा कोहिनूर देखा , बहक कर नशे में मैं तो कभी खोया नहीं था आपा ना ढोंगी योगी बन किसी नक़ाब डाला कभी था डाका , ग़म भूलाने के लिए मैं तो तिल-तिल जल जा रहा हूँ डर है कहीं जल ना जाए,जो अमानत दिल में छुपा रहा हूँ , इक वो भी वक्त था नजर से पीया,था जमाल उनका साक़ी अब वो वो रहे ना हम हम रहे रह गया मैं और गिलास बाकी । रिन्द --पियक्कड़                                  शैल सिंह 

प्रीति की रेशम डोर वास्ते

प्रीति की रेशम डोर वास्ते नफ़रतें-रुसवाईयाँ जहाँ भी देखो जिस तरफ  पश्चिमी तहज़ीब हमें ले जा रही है किस तरफ  खुदगर्ज़ी सोई है बेफ़िक्र नेकियों की लाश पर  दूर होता जा रहा आदमी,आदमी से हर तरफ। दायरा नफ़रतों की आग का बढ़ता ही जा रहा  सिलसिला बेबाक हादसों का बढ़ता ही जा रहा  ख़ता पर ख़ता इन्सान कर रहा है ईमान बेचकर  वेदना की परवाह किसे एहसास मरता जा रहा ।  गुलिस्ताँ से ख़ुशबूवें भी अब बेज़ार होती जा रहीं  कैसा हुआ ज़माना दामनें दाग़दार होती जा रहीं   धधक रही दुनिया धर्मान्ध हो हैवानियत के हाथों   अमन खो गया कहीं ज़िंदगी लाचार होती जा रही ।  भय,जुल्म,आतंक मुक्त जग के दारुण शोर वास्ते   निडर इब्तिदा करें मिलकर खूबसूरत भोर वास्ते  गिले-शिक़वे ना हो मन मोहब्बत ही मोहब्बत हो       आओ नज़ीर पेश करें प्रीति की रेशम डोर वास्ते ।                     ...

भीषण अपराधों के मालिक तुम

भीषण अपराधों के मालिक तुम हे गर्वित निष्ठुर भगवान सुनो क्यों बैठ के लीला देख रहे तुम आँखें मूँद हिमालय की चोटी पर पत्थर दिल द्रवित नहीं होता क्यों  समाज के दयनीय करुण शोर पर , साधना अवहेला कर दी घायल सृष्टि रचने वाले ईश कहाँ तुम कैसे भाव अभाव से भरे हृदय में जहाँ इंसा इंसा का मोल ना जाने मर्यादाएँ लहूलुहान दाग़ दामन में , अर्चना दुहाई मन ना भाई निर्दय क्यों पाप-पुण्य की खींची रेखाएं सब तेरी ही मर्जी का खेल तमाशा जग जीवन त्रस्त,अस्त-व्यस्त है   क्या जा ने   पाषाणी तूं दुःख की भाषा , भीषण अपराधों के मालिक तुम तुम्हीं संतापों के निपुण रचयिता क्या कभी ग़ौर से देखा भी तुमने हादसों ,हत्याओं के कालसर्प को चीरहरण की चीखें वीभत्स दर्द को , कूटनीतिक व्यूह सब तेरी चाल का सांसों की आजाद तरंगे भय से बंदी चाँद-सूरज पर भी आतंकों का साया जीवन भी गिरवी तेरे हाथों विधाता  हिंसा के दावानल में भी तेरी माया , भेदभाव कर नर-नारी के अवयव देख शर्मनाक दृश्य अपनी करनी का तेरे बंदे ही डाका डाल रहे लाज पर रू...

ऐसा है हमारा वतन

ऐसा है हमारा वतन हमारे वतन के आगे भला क्या बिसात और देश की गोदी में जिसकी खेलतीं हजारों जातियाँ रंग,भाषा,वेश की। हमारे वतन के आगे भला क्या बिसात और देश की सोहबत में जिसके विहँसते हैं सदैव नदी रेगिस्तान रेत भी। हमारे वतन के आगे भला क्या बिसात और देश की जहाँ मन्दिरों में गूँजे घण्टियाँ सुनाई दे मस्ज़िद अज़ान की। हमारे वतन के आगे भला क्या बिसात और देश की जहाँ ईसा को मिले मान हो सम्मान गुरु गोविन्द महान की।                                                                           माँ-बाप ,भाई-बहन ,पत्नी, बेटे-बेटी, गाँव की सीमा के प्रहरियों तुम्हें सलाम देश जहान की रख जान हथेली पे रखते लाज माँ के आन की तेरे बुते महफ़ूज गुलिस्ताँ,चमन हिंदुस्तान की । ''बन्दे मातरम'' ,''भारत माता की जय''                 ...

अव्यक्त हृदय के आँसू

अव्यक्त हृदय के आँसू  जब बड़ों में ही नहीं कोई बड़प्पन तो क्या सीखेगा रेशम सा बचपन । किसी ने संयम का तटबंध है तोड़ा और हृदय विदीर्ण किया है आज, मन छलनी कर ज्वाला भड़काई है  खण्ड-खण्ड करके रिश्तों का साज़ । ग़र दे नहीं सकता कोई किसी को दो मीठे बोलों की अमृत का बूंद हँसकर कटाक्ष कर कस फब्तियाँ ना और भी बनाये सम्बन्धों को ठूँठ । कहीं ख़ाक न कर दे अहंकार यह डर है अहंकारी का समूल विनाश कुछ सीख ले प्रकृति सौरभ से जो हरदम महकाती प्रतिकूल सुवास । कुछ अर्ध विक्षिप्त से अपने लोग हैं  सभी को नीचा दिखलाया करते हैं नसीहत उसी सुनाने वाले को खुद क्यों नहीं सुनने का माद्दा रखते हैं । सहने सुनने की भी इक सीमा होती जब हिम्मत की औक़ात बताने की क्यों तिलमिला कर आग बबूला हुए बहरूपिये हैं रंग बदलना आदत सी । अपने कुत्सित भावों का परिचय देते  सदा सभी पर गरल उँड़ेलते हरदम वह बहुरंगी अभिनय के वैभवशाली  सीख लें  जहाँ पियूष बरसते हरदम । क्यों आदर्श पुरुष बन जग सम्मुख ...

शायरी

शायरी ग़र मुस्करा दो जानेमन,जानेजां गुल गुलशन के सारे निखर जाएंगे, तेरे चलने से आये खिजाँ में बहार शमां दिल की जलाओ ठहर जाएंगे, गर बिखरा दो जुल्फों की काली लटें मस्त मुनव्वर घटा में नजर जायेंगे , ग़र छेड़ दे दिल प्यार की दो ग़ज़ल ग़म के लम्हें भी सर्र से गुजर जाएंगे, तलब तेरे भी आँखों में देखी है, ग़र हक़ीक़त बयां हो दिल में उतर जाएंगे ।                                   शैल सिंह 

मेरे गाँव सी

मेरे गाँव सी जब भी शहर आया कोई गाँव से हमारे मानो यादों की गठरी लाया बचपन की सारे, भोर की गुनगुनी धूप साँझ की लालिमा खिल के परिदृश्य नाच उठते अँखियों के द्वारे , मित्रों की मण्डली टीला गाँव के छोर का उछल-कूद नदी,बाग़,गपना पोखरों के किनारे , बेल,झरबेरी,जामुन,ईमली आम का टिकोरा मछलियों का पकड़ना ओ फंसा कंटियों में चारे , थपकी आजी की माँ की झिड़की मीठी-मीठी बाबूजी का नेह काका बाबा के दुलारों की फुहारें , दूध,दही,दाना,रस,मट्ठा,महुवा का ठेकुवा हाट-बाट,राम लीला,नाटक,मेला गाँव के चौबारे , होली का हुड़दंग,दशहरा,दीवाली के पटाखे बाइस्कोप ,गिल्ली-डंडा,झूला,कंचे तैरते नज़ारे , मजूर शलगु दादा,मुंशी धोबी,महजू काका महरिन काकी का पानी भरना नित साँझ-सकारे , यहाँ कब उगता सूरज ढलती है शाम कब कब नहाती चांदनी में रात जगमगाते कब सितारे , कैसे होते पड़ोसी रखते पट बंद खिड़कियां कहाँ जानते हैं शहर वाले मेरे गाँव जैसे भाई-चारे , है शहर की कहाँ सोंधी महक मेरे गाँव सी फिरती रही भीड़ भरे नगर ...

चाँदनी सी शीतलता

चाँदनी सी शीतलता चाँदनी सी शीतलता जब मन ना घुली तो चाँद पर पहुँच जाने से क्या फ़ायदा , मानवता ने मानवता जब छुआ नहीं खुद महानता दर्शाने से क्या फ़ायदा , दिल को आहत करे जो हर लफ्ज़ से उसे महात्मा बन जाने से क्या फ़ायदा , छोटे-बड़ों का आदर सम्मान ही नहीं तो उसके धनवान होने से क्या फ़ायदा , जो हाथ ग़ुरबत में भी देना सीखा सदा गुर धनवान ना सीखा तो क्या फ़ायदा , खुद के लिए जीते करते हैं संग्रह सभी किया जग लिए कुछ ना तो क्या फ़ायदा , क्यों झुकी रहती है डाली फलों से लदी मगरूर ओहदा न जाने तो क्या फ़ायदा , सुख समाये ना जिसमें हर ख़ुशी के लिए माल,दौलत और शोहरत से क्या फ़ायदा , दिल दुखे ना जिसका दीन दुःखी के लिए भला धर्म,कर्म,दान,पुण्य से क्या फ़ायदा । ग़ुरबत--ग़रीबी                                            शैल सिंह

नौमीद मत होना जहाँ आफ़री साथ तेरे

नौमीद मत होना जहाँ आफ़री साथ तेरे घबराकर तुम कभी ग़म-ए-हयात से जिंदगी बेबस दूभर ना खुद बना लेना हर भयावह रात बाद रंगेशफक़ सवेरा होगा, बात सोज़ दिल को समझा लेना , असंख्य गुलाबों की बाग़ है ये दुनिया  फूल चुनना शूलों से दामन बचा लेना  ये दुनिया है फर्श चिकना चौंधियाकर  फिसल ना जाना खुद को संभाल लेना , महरूमी-ए-किसमत पर हँसे जमाना  जुल्में-दुनिया से हाले दिल छुपा लेना ऐतबार,वफा ,खता आग के दरिया हैं  इरादों का अपने ना ख़्वाब जला लेना , मायूस हो मुश्किले-हालात से हरगिज़ न खुद को ग़म के आईने में ढाल लेना वक्त के ज़ालिम हाथ की कठपुतलियां हैं हम,किस्मत रंग लाएगी आज़मा लेना , यही इम्तिहान की कठिन घड़ी है दोस्त  आस्मां पर लक्ष्यों का अरमान उगा लेना  जिंदगी इक जंग है संघर्ष अनवरत सही  ठोकरों की नोंक पे अंगड़ाई जवान लेना , जो काबिल नहीं तेरे तरज़ीह भी ना देना इन दिल दुःखाने...

हम ऐसे फूल हैं ख़िज़ाँ में महकेंगे ख़ुश्बू सदा बनके ।

हम ऐसे फूल हैं ख़िज़ाँ में महकेंगे ख़ुश्बू सदा बनके    शाहकार बहुत दहर में ख़ुदा की इनायत सदा हमपे  हम ऐसे फूल हैं ख़िज़ाँ में महकेंगे ख़ुश्बू सदा बनके ।  मेरी ख़ुद्दारी पे बन आई खुदा खुद्दार बनाये रखना क़ुर्बान जाऊँ इसपे परवरदिगार लाज बचाये रखना , क़ाईल मौजे हवा से हूँ वो बदलते मौसम से हो गए  चेहरा-ए-अय्याम देखे कमाल बेदार इसी से हो गए , सई-ए-मुक़र्रर को सहने की अब ताब नहीं मुझमें  तज़कारा से क्या फायदा कोई अब चाव नहीं उनमें ,    उनकी फितरत है ऐसी खुदशनास भी होंगे खुद से  यही अज्ज होता है रस्मो-राह रखना रज़ील रुत से , कैसे सैय्याद हैं दहर में समय से जान लिया अच्छा  ऐसे सुकूत से ज़िंदगी को निजात मिल गया अच्छा , अवारगाने-शहर में वो रूप का ज़ेवर सजाये रक्खें   ग़लतफ़हमियों के आईने में ऐसे तेवर सजाए रक्खें , क़ाईल--संतुष्ट ,चेहरा-ए-अय्याम--लोगों के चेहरे  सई-ए-मुक़र्रर--किसी होनी के दुबारा घटने का...

कितने मौका परस्त तुम

कितने मौका परस्त तुम कदम-कदम पे भरोसे को आघात मिला  वफ़ा को मेरी बेवफ़ाई का सौग़ात मिला , मेरी शाइस्तगी का बेजां इस्तेमाल हुआ   ख़ाकसार होना क्या गुनाह बदहाल हुआ , शिद्दत से ऐतबार करना ही ज़ुर्म था मेरा पुरदर्द,पुरसोज से सम्मान ग़र्क़ हुआ मेरा , ऐसी बशारत दे बिस्मिल किया क्यों दोस्त  वाक़िफ़ बरगस्तगी से बुरहान मत दे दोस्त , इस बदअहदी का ख़ुदा ही जवाब दे अच्छा  तेरी बदनीयत पर रग़म रहना मेरा अच्छा , अर्से की भली दोस्ती का मख़ौल खुद उड़ाया बाज़ीच मेरा दिल क्या तोड़ जश्न जो मनाया , क्या कहेगी दुनिया ऐ खुदगर्ज़ ये भी ना जाना  हम भी होंगे ख़ुश इक़बाल आकर देख जाना , ख़यानत तुझे मुबारक़ मेरी सादगी ही देखी  कितने मौका परस्त तुम ये वानगी भी देखी ।  शाइस्तगी--शिष्टता,सभ्यता                 ख़ाकसार--विनीत,विनम्र               बुरहान--युक्ति ,सफाई  पुरदर्द--दर्द से भरा हु...

रिमझिम सावन जो बरसे

रिमझिम सावन जो बरसे  एक तो किल्लत बिजली की उसपर से हवा भी गुम हो मौसम की मार सही ना जाए कैसी बेशरम गर्मीं तुम हो , करत निहोरा मानसून का बीता गया मास आषाढ़ सावन उमस में काट रहे कब होगी नदियों में बाढ़ , पेट की अगन बुझाने को मरना खपना बदा रसोई में टपर-टपर टिप चुवे पसीना दम निकले आटा की लोई में , बड़े बुज़ुर्ग दुवारे दालान में रुख पर डाले घूँघट कनिया कोठरी भीतर अऊंस रही  लेके हाथ में डोले बेनिया , डीह-डिहुआरिन पूज रहे सब टोटका करि करि मेंह बुलावे मँहगाई करे हाल बेहाल कैसे जल बिन जिनिस उगावें , जरई सुख रही क्यारी में रोपनी मूसलाधार को तरसे प्यासी धरती निष्ठुर मौसम भींगे रिमझिम सावन जो बरसे । कनिया--दुल्हन ,अऊंस--उमस      शैल सिंह

धरा को मौसम की सौगात तो दो

धरा को मौसम की सौगात तो दो  टकटकी लगाये देखें आँखें  बस अम्बर की ओर कड़क तड़क कर ललचाये काली घटा घेरी घनघोर , ख़फा-ख़फा क्यों बरखा रानी कर दो ना थोड़ी मेहरबानी                         लेकर उधार कजरारे बादल से नियत समय बरसा दो पानी , कृषक बेहाल हैं सुखी धरती खेत कियारी पड़े हैं परती दिखे ना कहीं हरी दूब औ चारा भेड़ बकरियां गायें क्या चरतीं , घर में नहीं अन्न का एक भी दाना ठाला पड़ा है कोठार का कोना रहम करो ओ बादल राजा लगा लो गुदड़ी का अन्दाजा , घर जला नहीं है कबसे चूल्हा फटका नहीं है राशन कबसे कूला सुखा कंठ हैं क्षुधा है भूखी काट रहे दिन खाकर रूखी-सूखी , सूरज बहुत हो गई तेरी वाली तपन से झुलसी देह की बाली कृपा कर सूनो मानवता का शोर कब होगी धुँधलाई आँखों में भोर , क्यों कंजूस बने हो मेघराज जी धरा को मौसम की सौगात तो दो बोवनी का समय खिसक ना जाए गायें सभी मल्हार बरसात तो दो , आमंत्रण स्वीकार करो आह्लाद से छोड़ बेरुख...

विदेशी भाषा अंग्रेज़ी

           विदेशी भाषा अंग्रेज़ी हिंदुस्तान में ही जब शाख़ नहीं हिंदी की तो कैसा हिंदुस्तान जिस भाषा को ढाल बना लड़ा था देश जो स्वाधीनता संग्राम जहाँ की रीति,प्रीति,संस्कृति,प्रकृति में कण-कण बसी है हिंदी विदेशी भाषा अंग्रेज़ी,भारतीय सभ्यता की अभिव्यक्ति है हिंदी जैसे ब्रिटिश सत्ता के साथ आई थी अंग्रेज़ी बन कर यहाँ मेहमान वैसे ही यहाँ से हिंदी के धुरंधर विद्वान इसे विदा कर दें ससम्मान राजभाषा को सुदृढ़ करना,देश के नागरिकों को आगे आना होगा  मधुरस घोलने वाली हिंदी को दृढ़ता से सबल,सशक्त बनाना होगा  जयललिता,करूणानिधि जैसे अंग्रेजी की करें हिमायत रहें हितैषी राजभाषा के राजद्रोहियों के विलाप को करना होगा ऐसी की तैसी अंग्रेजी भक्त पी.चिदंबरम खूब करें तीमारदारी इसकी तरफदारी हिंदुस्तान में नहीं होगी बाहरी भाषा की ईज्जतदारी से खातिरदारी अंग्रेजी मोहित लोग यहाँ से जाकर करें ग़ुलामी अंग्रेजों के देश देश भक्तों को अपनानी अपनी राजभाषा जो लगती सबसे श्रेष्ठ क्षेत्र है इसका व्यापक इतना आसानी से बोला समझा...

हिंदी नहीं तो हिंदुस्तान कैसा

हिंदी नहीं तो हिंदुस्तान कैसा जब दूर होगी हिंदुस्तान से हिंदी फिर अंग्रेज़ी के साथ हमारा क्या होगा गंगा जमुनी तहज़ीब संस्कृति सभ्यता सनातन धर्म का आगे फिर क्या होगा अंग्रेजी आबाद रहे इसके हिमायतियों ने   हमें नाशाद किया है कितना हमारी सांस्कृतिक विरासत के गढ़ को इस मुई ने बर्बाद किया कितना अंग्रेजों को तो खदेड़ दिया ठाठ से यहाँ अंग्रेजी पोषित होती रही ग़फ़लत में इस सौतन भाषा संग सनातनी हिंदी शोषित होती रही अंग्रेजी की वक़ालत करने वालों की है मुट्ठी भर ही तादात यहाँ  करोड़ों भारतीयों की जुबां की रानी पराई को कैसे करें बरदाश्त यहाँ जिसके रंग-ढंग में तहजीब नहीं छोटे-बड़ों का आदर-भाव नहीं हिंदी का मुकाबला करेगी क्या ये जिसमें भारतीयों को रंच भी चाव नहीं अवांछनीय नहीं है कोई भाषा ना ही भाषा ज्ञान बुरा है पर राष्ट्र को स्वभाषा में बांध कर रखना ही हमारी परम्परा है हिंदी का पोषण कर इसका प्रचार,प्रसार संवर्द्धन कर इसे अर्श पर लाना है भारतीय संस्कृति के सनातन प्रवाह को राष्ट्र भाषा का दर्जा देकर अक्षुण्ण बनाना है ।...

तेरी अलबेली काया

        तेरी अलबेली काया तेरे खंजन नयन नशीले मृदु अधरों के बोल रसीले  नागिन सी लट लहरे ललाट,तिलस्मी चितवन बोले , किस दिव्य लोक से आई कल्पना में ख़लल मचाने  मखमली भाव तरंगों पर मृदु मादक हाला बरसाने , जब से दृग ने देखी है अल्हड़ तेरी अलबेली काया  चेतन अवचेतन तक को विस्मित कर तूने भरमाया , मन-फटिक शिला तेरी प्रतिमा सुख देती संसार का  प्यासे चातक मन को अर्क मिला  जो   तेरे दीदार का , सुखी, ऊसर, बंजर बसुधा अंतर्मन की  हो  गयी  उर्वर  जीवन के मरुमय तट  उन्मत्त, उगने लगे हैं तरुवर ।                                            शैल सिंह