बुधवार, 3 सितंबर 2014

इक वक्त था जब


मुर्गे की बाँग से प्रारम्भ विहान होता
पक्षियों के कलरवों से सूर्योदय का भान होता
अब नहीं चहकतीं बुलबुलें भी वैसी बाग़ में
मोर-मोरनी के नहीं वैसी रोमांच नाच में
कोयल भी मीठी कूक नहीं अब सुनाती रात में
अब नहीं वो बात जो पहले बात थी बरसात में 
जल रही है दुनिया सारी ना जाने कैसी आग में।
                                              शैल सिंह  

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