शनिवार, 27 सितंबर 2014

गुजरे ज़माने की बातें

काल खण्ड की बातें 

सब कुछ आज है पास मेरे 
नहीं जो साथ रहा करते थे
हम बाबूजी की पर्णकुटी में 
आनंद विहार किया करते थे ,

थोड़ा ही सुख था तो भी क्या 
दुःख थोड़ा ही किया करते थे 
बैठ कुटुम्ब कबीला संग,नव 
प्रेरक सद्भाव बहा करते थे ,

अभावग्रस्त था जीवन फिर भी 
लघु दीप जला करते आदर्शों के 
अनुकंपा असीम देवों की बरसती 
लक्ष्य होते बस रोटी,घर,वस्त्रों के ,

नत शीश हृदय से जोड़ अंजुरियाँ 
प्रभु का आह्वान किया करते थे 
देवत्व,साधना,तप,स्तुति में नयना 
शाश्वत सुख अभिराम किया करते थे ,

तृप्ति थी संतुष्टि अपार भी 
अवसाद नहीं दबाव था कोई 
नेह,दया,अनुराग अलख भाव 
मन आँगन करुणा पूँजी बोई ,

नहीं ईर्ष्या,द्वेष,क्लेश किसी से 
ना दंभ,भय,लोभ किसी से कोई 
पाट की खाट पर सारी रतिया 
सबने सुख की निंदिया सोई ,

साधन,सम्पति,समृद्धि सब कुछ 
हृदय घट ही क्यों है सूख गया 
जिस पनघट पर सब मिलते थे,वो 
अलमस्त आलम कहाँ मीत गया ,

मनवांछित वैभव के रस में पग 
प्रशांत नगर ही बह गया कहीं 
तनावग्रस्त,दुःख घोर यातना में 
संसार निराला ही बह गया कहीं ,

विश्वास,आस्था,नेह,आनन्द ही 
निर्वासित हो गए जीवन से 
शान्ति ने ली वनवास सदा की 
संग्रह प्रत्याशा में हुए निर्धन से ,

अंतर्मुखी लोक का बुर्ज़ ढह गया 
बहिर्मुखी दुनिया का वरण कर 
फिर क्यों घोर निराशा,नीरस मन 
सुख मिला जो तज,निज तर्पण कर ,

जब तक जीरो थीं उपलब्धियाँ 
अनगिनत विभूति के मालिक थे 
आकण्ठ मिठास थी रिश्तों में भी 
पूर्व की निधियाँ दीर्घकालिक थे ,

बिखरी संस्कारों की सब कड़ियाँ 
बैरी अहंकार नरेश के शासन में 
मूल्यों का चीरहरण प्रत्यक्ष हो रहा 
निर्लज्य होती असभ्यता के हाथों में ,

व्यर्थ लालसा,कामना,तुलना में 
मानवता भंवर जाल फँस खोई 
अंतहीन संपदा की ख्वाहिश 
बुनता ख़ुद मकड़जाल हर कोई ,

न लेकर जग में आया कुछ कोई 
ना लेकर ऊपर कोई कुछ जाना है 
गया सिकंदर भी खाली हाथों बंधु 
मूलमंत्र निहित जग जाना-माना है ,

पद का मद समृद्धि की सत्ता 
सामर्थ्य शक्ति और भौतिकता में 
बेमानी हो गए नाते बातें सारी 
करता बोध,लोप अकर्मण्यता में ,

छोड़ प्रलोभन संग्रह का साथी 
सीखो जीवन ख़ुशहाल बनाना रे 
बस अभिरक्षक ,संरक्षक बनकर
साथी न्यासी का फ़र्ज़ निभाना रे । 
                                   शैल सिंह 



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