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शब्दों के मुक्ताहार

तुम ही तुम आये नज़र जब भी निहारा चेहरा आईने में  कैसे झपकायें नैन बैठे तन के नयनपट के शामियाने में  सजा रखा करीने से ख़तों का ख़ज़ाना दर्द की बस्ती में   सहेजती रही ख़्वाबों की वरासत लफ़्ज़ों के तहखाने में । बेजान अरसे से पड़ी थी दिल की जमीं तुम मुस्कुराये और तबियत हरी हो गई प्रेम का हल चला नैन किये उर्वरा जमीं पहले से और भी मुसीबत खड़ी हो गई । निगाहों ने जाने क्या ऐसा पयाम दे दिया  कि वह दिल की सरहद के पार आ गया लगा पैमाइश करने घर की दहलीज़ का आहिस्ता-आहिस्ता मन के द्वार आ गया । पैमाइश ---माप या जासूसी करना मेरे मन समन्दर में तूफ़ान आया कि नहीं  मेरे मुखड़े को उसका मुसल्सल निहारना  पलकों के तट पर बैठ सोचता आठों याम  कैसे यंत्र से है मुहब्बत का महल तराशना । जब भी एहसासों के समंदर में सैलाब आया ख़यालों में उनकी याद ने जब उत्पात मचाया कलम अंकवार दे दी व्याकरण के विस्तार से  वक्ष बेंधती गई पन्नो का शब्दों के मुक्ताहार से । मेरे तन्हाइयों की महफ़िल अब गुलज़ार रहती है  बिखरी ख़्वाबों के असबाबों की भरमार रहती है  ऑंखों की नींद चुरा जिनसे ...