गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

मैं सीपी के मोती जैसी



हमराह में साथी नहीं संगी कोई अपना
भरे जो रंग गहबर सा अधूरा ही रहा सपना

मिले मंजिल मेरी मुझको 
अभिलाषाएं भटकती हैं 
महत्वाकांक्षा रही सिसकती 
उमर पल-पल गुजरती है ,

गगन के सितारों सी चमकने की कल्पना थी 
जमीं पर पांव चाहत चाँद छूने की तमन्ना थी । 

अपनों ने दिखा दिवा सपना 
कंचन सा विश्वास ठगा मेरा 
खुद की धुरी के चारों ओर 
बस डाल रही अब तक फेरा ,

घायल मन की व्यथा मिटा यदि कोई बहलाता 
चाहे अनचाहे सपनों की यदि मांग कोई भर जाता । 

सागर से भरी गागर है 
मन रीता-रीता सा ही 
मोती सी तरसती तृष्णा 
घर संसार सीपी सा ही ,

टूटे साजों पर गीत अधूरे किस्मत काश संवर जाए 
चाहत पर चातक की शायद स्वाति की बूँद बरस जाए । 

कस्तूरी जैसी महक मेरी 
ये जागीर न देखा कोई 
असहाय साधना की राहें 
ऐसी तरूण कामना खोई ,

घरौंदों को आयाम मिले कब किरण भोर की आएगी 
कब कसौटियों पर खरी उतर शख़्सियत गर्द मचाएगी । 

विराट कलाओं की पूँजी 
रेतमहल सी धराशाई 
क्या सपनों का सिंगार करूँ 
मधुमय मादकता अलसाई ,

नगीना कुंदन सा निखरता यदि होता जौहरी कोई 
कीचड़ में खिला कमल ड्योढ़ी मंदिर की सौंजता कोई । 

मजबूर अभावों में पल-पल 
लीं कोमल उड़ाने अंगड़ाई  
कद्रदान तराशे होते अग़र 
इन उद्गारों की सुघराई ,

अब समर्थ किस काम अहो शाम ढली सूरज की 
हे री मन वीणा की चिर पीड़ा झंकार उठी धीरज की । 

कहाँ चाह पहाड़ों के कद सी
कब मांगी सूरज के तेवर 
घटते वसंत लघु जीवन के 
कहाँ मन के धरूँ धन ज़ेवर ,

हाशिये पे रखने वालों कभी ना आंकना कमतर 
खुद में ऐसी रवानी पानी सी राह बना लेगी बहकर । 
                                                    शैल सिंह 



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