हमराह में साथी नहीं संगी कोई अपना
भरे जो रंग गहबर सा अधूरा ही रहा सपना
मिले मंजिल मेरी मुझको
अभिलाषाएं भटकती हैं
महत्वाकांक्षा रही सिसकती
उमर पल-पल गुजरती है ,
गगन के सितारों सी चमकने की कल्पना थी
जमीं पर पांव चाहत चाँद छूने की तमन्ना थी ।
अपनों ने दिखा दिवा सपना
कंचन सा विश्वास ठगा मेरा
खुद की धुरी के चारों ओर
बस डाल रही अब तक फेरा ,
घायल मन की व्यथा मिटा यदि कोई बहलाता
चाहे अनचाहे सपनों की यदि मांग कोई भर जाता ।
सागर से भरी गागर है
मन रीता-रीता सा ही
मोती सी तरसती तृष्णा
घर संसार सीपी सा ही ,
टूटे साजों पर गीत अधूरे किस्मत काश संवर जाए
चाहत पर चातक की शायद स्वाति की बूँद बरस जाए ।
कस्तूरी जैसी महक मेरी
ये जागीर न देखा कोई
असहाय साधना की राहें
ऐसी तरूण कामना खोई ,
घरौंदों को आयाम मिले कब किरण भोर की आएगी
कब कसौटियों पर खरी उतर शख़्सियत गर्द मचाएगी ।
विराट कलाओं की पूँजी
रेतमहल सी धराशाई
क्या सपनों का सिंगार करूँ
मधुमय मादकता अलसाई ,
नगीना कुंदन सा निखरता यदि होता जौहरी कोई
कीचड़ में खिला कमल ड्योढ़ी मंदिर की सौंजता कोई ।
मजबूर अभावों में पल-पल
लीं कोमल उड़ाने अंगड़ाई
कद्रदान तराशे होते अग़र
इन उद्गारों की सुघराई ,
अब समर्थ किस काम अहो शाम ढली सूरज की
हे री मन वीणा की चिर पीड़ा झंकार उठी धीरज की ।
कहाँ चाह पहाड़ों के कद सी
कब मांगी सूरज के तेवर
घटते वसंत लघु जीवन के
कहाँ मन के धरूँ धन ज़ेवर ,
हाशिये पे रखने वालों कभी ना आंकना कमतर
खुद में ऐसी रवानी पानी सी राह बना लेगी बहकर ।
शैल सिंह
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