सोमवार, 22 सितंबर 2014

''अपनों ने जो दर्द दिया''

अपनों ने जो दर्द दिया


कहना तो चाहुँ बहुत कुछ मगर
सम्भल जाये ज़ुबाँ तो मैं क्या करूँ ,

शब्द शिकवे के बड़े ही लचीले यहाँ
अर्थ का अनर्थ ना हो जाए कहीं
मोड़ एक पड़ाव पर जो ठहरे अभी हैं
परे हटकर कुछ हो ना जाये कहीं
मैं अनुरक्त उनकी वो समझ ना सके
भ्रान्ति मन में उठे तो मैं क्या करूँ ।

लाख दे दो हमें तुम बद्दुवाएं मगर
साये से अपने विरत ना करना कभी
मुझसे प्रश्नों की झड़ियाँ लगाने से पहले
अरे परखा तो होता विश्वास को भी
पृष्ठ पीछे क्या-क्या गुल खिला दिए गये 
आप मुझसे छुपाएं तो मैं क्या करूँ ।

उस ग्रन्थि को कैसे सुलझाऊँ भला,जो
निपुणता से रंग-रंग में बोई पिरोई गई
मिलेगा कहाँ रंग-रोगन खुद ही बता दो
पालिश कला में ये जुबां जो डुबोई नहीं
मुझे तूलिका में सही रंग भरने ना आया
हजार रंगों की ये दुनिया तो मैं क्या करूँ ।

अब समझने को बाक़ी कुछ भी नहीं
भाषा भावों की आती है पढ़नी मुझे
विवश धैर्य का ज़ाम थामे मैं घुटती रही
सही समय की प्रतीक्षा ने रोका मुझे
कौन कितना ग़लत कौन कितना सही
आप इससे अन्जान हैं तो मैं क्या करूँ ।

विनती हमसे ग़िला कभी करना नहीं
लाचार वज़ूद की कोई अहमियत नहीं
अति साधारण बेक़सूर इंसान हूँ मैं
पर स्वाभिमान मरा नहीं जिन्दा हूँ मैं
आप पूछते हैं कि ये सब क्या चल रहा है
बेहिचक कह ना पाऊँ तो मैं क्या करूँ ।


मेरे ख़्वाबों की दुनिया है छोटी मगर
बदसूरत और कुरूप बिलकुल नहीं
अतीत हमसाया बनकर सदा साथ है
समझना ना सपनों की महफिल नहीं
सृजन के विस्तार का ख़ूबसूरत आकार है
दुर्गम राह काँटों भरी तो मैं  क्या करूँ ।

अधर खुलते नहीं तो मूक वाणी नहीं
स्वस्थ मस्तिष्क बीमार है ना बेज़ार है
हो ना जाना ख़फ़ा फिर किसी बात से
मान लेना कि दिल का ये गुब्बार है
दिल पर इल्ज़ाम की चोट खायी हुई हूँ
बिफरे क़लम की जुबाँ तो मैं क्या करूँ ।

टीस गहरी चुभन जिसमें कसक तेज भी
कितना मरहम लगाऊँ ऐसे नासूर पर
घर उनका भी जलेगा इक दिन जरूर
जिसने फेंकी चिंगारी है मेरे फूस पर
लगातीं हैं काकी बुझाती ये क़िस्सा सही
फन ऐसे मुझमें नहीं तो मैं क्या करूँ ।

स्वार्थ में शख़्स इतना क्यों मग़रुर है
चाटुकार,लोलुप,मिथक औ बेईमान भी
जिसकी प्रतिमा स्थापित उर के तख़्त पर
फांस उसके मन में मेरे प्रति चुभोई गई
जिसे पाट सकने में दक्ष ईंट गारे नहीं
मन की खरोंचे,दरारें तो मैं क्या करूँ ।

जो हमपे सितम की बिजली गिरी है
बदली घिरी है हवाओं से छंट जाएगी
वो तो सराबोर भींगेंगे उस दिन जरूर
जिस दिन बरखा झमाझम बरस जाएगी
हमें बेचैन करके वो आजकल चैन में हैं 
सुकून मुझसे जो रूठा तो मैं क्या करूँ ।

हम आपके वास्ते क्या से क्या सह गए
जुबां ख़ामोश थी और वो सब कह गए
आप भी जिनसे वाकिफ़ बहुत ख़ूब हैं
फ़र्क़ इतना वो नज़दीक हम बहुत दूर हैं
रख संयम स्वयं पर बहुत प्यार से आपने 
कड़वा आभास कराया तो मैं क्या करूँ ।

कहने को बहुतेरे सफ़र में अपने मिलेंगे
वक़्त के दहलीज़ों पर ढूंढ़ेगी आँखें सदा
कौन कितना पराया सगा कौन कितना
ये तो बताएगी वक़्त पर समय की वफ़ा
आप अपने थे रहेंगे हमेशा हमारे मगर
आग ये दुनिया लगाये तो मैं क्या करूँ ।

इतनी लिखने की धृष्टता मैंने जो की
माफ़ करना कोई जो भूल मुझसे हुई
आप उकसाते थे प्रायः कविता लिखो
उर के उद्गार वास्ते कवयित्री बन गई
बहुत रोका-टोका मनाया भी लेकिन
बदमाश पोरें ना मानें तो मैं क्या करूँ ।
                                           शैल सिंह


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

नव वर्ष मंगलमय हो

नव वर्ष मंगलमय हो  प्रकृति ने रचाया अद्भुत श्रृंगार बागों में बौर लिए टिकोरे का आकार, खेत खलिहान सुनहरे परिधान किये धारण  सेमल पुष्पों ने रं...