मज़ार दियना जलाने फिर क्यूँ आये हो
खड़े फ़ख्र से तुम नुमायां कई घाट से
दम वफ़ाई का भरने फिर क्यूँ आये हो ,
दम वफ़ाई का भरने फिर क्यूँ आये हो ,
क्या लौटा पाओगे यास के गुजरे दिन
गिन उँगलियों पे काटे हैं जो रात-दिन
बहारें तो आईं बहुत रंग भरने चमन
पर इंतजार की जिस्म पर थी चुभन
खण्डहर सी हुई अब वो नुरे-ए-महल
झाड़-फानूस लगाने फिर क्यूँ आये हो ।
ओढ़ीं ख़ामोशी,दीवारों की हर सतह
जो सजी संवरी थी हवेली तुम्हारे लिए
नाम की तेरे माला जो सांसों में थी
उलझकर भी गुँथीं थी तुम्हारे लिए
हो गई है मोहब्बत इन तन्हाईयों से
ऐसी आदत छुड़ाने फिर क्यूँ आये हो ।
ख़्वाहिशों पर परत चढ़ गई जंग की
हसरतों को बदा पर दफ़न कर दिया
कोई शोला था भड़का वदन में कभी
ढांपकर लाज़ का था कफ़न धर दिया
जिस चाहत की अब ताब मुझमें नहीं
ताब फिर वो जगाने फिर क्यूँ आये हो ।
इक पहर रोशनी की जरुरत बहुत थी
अब अँधेरे में रहने की लत पड़ गयी है
कभी सरे राह तकती थी जो ज़िन्दगी
सूखकर लाश सी वो शरीर रह गयी है
जब जनाज़े को कांधा मयस्सर हुआ ना
मज़ार दियना जलाने फिर क्यूँ आये हो ।
दमकती कांति सूरत की कहाँ खो गई
क्यूँ पूछते हो शबाब ढल जाने के बाद
भींगे जंगल के मानिन्द मैं सुलगती रही
आज़ आये भी तो कितने ज़माने के बाद
मानस की जर्जर दरकती सी मीनारों पर
वही रंग-रोग़न चढ़ाने फिर क्यूँ आये हो ।
कौन सी ऐसी नायाब वो जाने महक़ है
जो शाख़ की इस कली,फूल पे ना मिली
जिसे मेहरूम किया नादान भौंरा तूने
नज़र आई उसी पर क्यों शहद की डली
जिन दरख़्तों में अब दीमकों का बसेरा
वहाँ आशियाना बनाने फिर क्यूँ आये हो ।
शैल सिंह
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