गुरुवार, 13 नवंबर 2014

मन के शोर हैं या हक़ीक़त नहीं जानती



ये बंद हैं या शेरो शायरी मैं नहीं जानती
मन के शोर हैं या हक़ीक़त नहीं जानती ।

( १ )

रुत बदलती है,मौसम बदलते हैं रोज,
दिन महीने और साल गुजरते हैं रोज
बस बदलती नहीं है घड़ी इंतज़ार की,
जाने कितनी गली से गुजरते हैं रोज ।

( २ )

ग़मों का अम्बार इतना ज्यादा है पास 
गैरों के ग़म सहलाने की फुरसत नहीं
गैरों की ख़ुशी से सरोकार मुझको नहीं
ख़ुशी मेरे दर का रुख़ जब करती नहीं ।

( ३ )

सितम ढाए हैं बहुत से सितमगर मगर
ज़ख़्म खा-खाकर दिल पर संभलते रहे
ग़मों में शामिल हुए नए ग़म हजारों मगर
अज़ाब शानों पे रख रेगज़ारों पे चलते रहे ।

( ४ )

हवाओं का दरीचे से बेरुख़ी से मुड़ के जाना
आवारा सडकों पर सोचों की प्रायः टहलना
दिल का परदा हिलाना गवारा भी ना समझा
दरे-जाना से लौटकर हरीमे-ग़म में भटकना ।

अज़ाब -मुसीबतें । शानों--कांधा । रेगज़ारों--रेगिस्तान
दरे-जाना- प्रिय के द्वार । हरीमे-ग़म--दुःखों के सहन में ।

                                                            शैल सिंह

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