शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

लाड़ली सुता का इक फ़कीरा मैं पिता हूँ

लाड़ली सुता का इक फकीरा मैं पिता हूँ

न इंसान सुन रहा है न भगवान सुन रहा है 
धीरज भी अब तो जैसे बलवान खो रहा है। 

धूर्त वक़्त का परिन्दा हाथों से निकला जाए
किसको बताएं कैसे क्या अंतर की वेदनाएं
न शुभ काम हो रहा न शुभ विहान हो रहा है,
धीरज  ....।
पल-पल पहाड़ जैसे,लगती लम्बी काली रैना 
आँखों से नींद गायब,ग़ायब सुकून और चैना
न सुजलाम हो रहा न कुछ सुफलाम हो रहा है,
धीरज ...।
तक़दीर का सितारा आँगन में किस चमन के 
बंधेगा साथ बन्धन किसके जनम-जनम के 
न शीलवान मिल रहा न दयावान मिल रहा है,
धीरज …।
लिपटी अंधेरी चादर में लगें चारों ही दिशाएँ
गली-गली की ख़ाक़ छानी बुझी ना तृष्णाएँ
न मन का मुक़ाम मिल रहा अरमान रो रहा है,
धीरज …। 
मन की गिरह खोलूं किसकी उदारता के आगे
विधाता लेखा-जोखा बेटी के भाग्य की बता दे
न अनजान सुन रहा न ही पहचान सुन रहा है,
धीरज ...।
दुःखी लाड़ली सुता का इक फ़कीरा मैं पिता हूँ
लाड़ली की फ़िक्र में ही मैं सोता और जागता हूँ
न व्यवधान टल रहा न तो समाधान हो रहा है,
धीरज .... । 
उसके हाथ की लकीरें क्या भाग्य की रेखाएं
बस देर है अन्धेर नहीं यही मन को समझाएँ
न स्वप्न की उड़ान को आसमान मिल रहा है,
धीरज …।
मृगमरीचिका सी प्यास क्षार-क्षार हर तरफ़
बहुत बेज़ार हूँ जाने कोई परेशानी का सबब
न कुछ निदान हो रहा मन हलकान हो रहा है,
धीरज ...।
इम्तहान मेरे सब्र का इतना भी लो ना साईं
निष्काम विफल हो रही सारी वास्ता दुहाई
न वरदान मिल रहा न अभयदान मिल रहा है,
धीरज ...।

                                                         शैल सिंह

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