सोमवार, 11 अगस्त 2014

अव्यक्त हृदय के आँसू


अव्यक्त हृदय के आँसू 


जब बड़ों में ही नहीं कोई बड़प्पन
तो क्या सीखेगा रेशम सा बचपन ।

किसी ने संयम का तटबंध है तोड़ा
और हृदय विदीर्ण किया है आज,
मन छलनी कर ज्वाला भड़काई है 
खण्ड-खण्ड करके रिश्तों का साज़ ।

ग़र दे नहीं सकता कोई किसी को
दो मीठे बोलों की अमृत का बूंद
हँसकर कटाक्ष कर कस फब्तियाँ
ना और भी बनाये सम्बन्धों को ठूँठ ।

कहीं ख़ाक न कर दे अहंकार यह
डर है अहंकारी का समूल विनाश
कुछ सीख ले प्रकृति सौरभ से जो
हरदम महकाती प्रतिकूल सुवास ।

कुछ अर्ध विक्षिप्त से अपने लोग हैं 
सभी को नीचा दिखलाया करते हैं
नसीहत उसी सुनाने वाले को खुद
क्यों नहीं सुनने का माद्दा रखते हैं ।

सहने सुनने की भी इक सीमा होती
जब हिम्मत की औक़ात बताने की
क्यों तिलमिला कर आग बबूला हुए
बहरूपिये हैं रंग बदलना आदत सी ।

अपने कुत्सित भावों का परिचय देते 
सदा सभी पर गरल उँड़ेलते हरदम
वह बहुरंगी अभिनय के वैभवशाली 
सीख लें  जहाँ पियूष बरसते हरदम ।

क्यों आदर्श पुरुष बन जग सम्मुख
महान साबित करते खुद से खुद को
मानवता विहीन,संवेदन हीन पता है
बहुत ख़ुश होते आहत करके सबको ।

कोई नहीं किया प्रतिवाद तो खुद को
सर्वोपरि मान करते सबका अपमान
ऐसे अभिमानी को यह बतलाना होगा
कौन दबा है पाँव तले जो देगा सम्मान ।

अव्यक्त हृदय के आँसू बहे काव्य में
कवि ने पन्नों पर विफर व्यथा दर्शायी   
द्रवित भावों के क़तरों ने शब्द तराशा 
मूक लेखनी ने असीम शांति बरसायी ।  |

                                       शैल सिंह 



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