मन का सुखौना
कब नजरें इनायत फ़ना कब नज़र
कब ख़ुशी लब हँसी क्या हमें ये ख़बर ।
अभी तक तो खिली धूप थी आँगने
की बादलों ने चुबौली रुख़ घटा डालकर
अभी मन का सुखौना ज्यों डाली ही थी
ओदा कर दी घटा और भी झमझमाकर ,
कुछ सिमसिमाहट होगी दूर यह सोचकर
भांपकर मिज़ाज़ मौसम का रुख देखकर
मन की तिजोरी से सारा जिनिस काढ़कर
कब ख़ुशी लब हँसी क्या हमें ये ख़बर ।
अभी तक तो खिली धूप थी आँगने
की बादलों ने चुबौली रुख़ घटा डालकर
अभी मन का सुखौना ज्यों डाली ही थी
ओदा कर दी घटा और भी झमझमाकर ,
कुछ सिमसिमाहट होगी दूर यह सोचकर
भांपकर मिज़ाज़ मौसम का रुख देखकर
मन की तिजोरी से सारा जिनिस काढ़कर
दहिया लगाई ख़ुशफ़हमी दिल नाशाद कर ,
रुत बदलती है रंग पल में जाना ना था
रुख हवा का किधर हो कब जाना ना था
धूप बदली की कितनी सुहानी लगी थी
ये खेल धूप-छाँव का दिल ने जाना ना था ,
ग़र अहसास होता फ़िजां के इस अंदाज़ का
साँसें महकी ना होती बहकी पुरवा ना होती
कैसे होते हैं शाम औ सुबह रूप के जान लेते
ग़र शमां को रौशनी की ऐसी परवा ना होती ,
फ़ुर्सत से मिली थी नज़र जो दो घड़ी के लिए
ख़ुलूस मिला उल्फ़त मिली दो घड़ी के लिए
मेरी महफ़िल में बैठ भी कभी दो घड़ी के लिए
देख अजनवी की तरह ही सही दो घड़ी के लिए।
शैल सिंह
रुत बदलती रंग पल ना था जिनिस काढ़कर
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