सोमवार, 22 अगस्त 2022

समंदर पर कविता , ख़ारे प्रवृत्ति का स्वभाव क्यों बदल ना सके

समंदर पर कविता 
ख़ारे प्रवृत्ति का स्वभाव क्यों बदल ना सके


साहिल से टकरा मुड़ जाना शगल बस तेरा
ऐ समंदर ये शरारत तुम्हारी अच्छी नहीं ।

रेत पर जो बनाए थे सपनों के घरौंदे
चल दिए लीलकर तुम बदी की तरह
ऊँची लहरों का रखो पास अपने गुमां
बह सकते नहीं तुम जब नदी की तरह।

कंठ तर कर सकते नहीं जब तुम नीर से
जल के महानद में डूबे आकंठ किस काम के
स्वाती की इक बूंद को सीप तरसा करे
इतने विशाल होकर भी तुम किस काम के।

आचमन भी जिस जल का दुष्कर लगे
जिससे अभिषेक शिवालय का हो ना सके
तेरी बादशाहत बस कायम लवण के लिए
ख़ारे प्रवृत्ति का स्वभाव क्यों बदल ना सके ।

राज क्या है तुम्हारे विस्तृत साम्राज्य का
जब-तब मचाती हलचल तेरी तह सूनामी है क्यूँ
दुनिया की कड़वाहटें समेट तूं आक्रोशित होता
या तट पर देख सैलानियों को होता बेकाबू है तूँ ।

तेरी गहराईयों में इतनी गहन ख़ामोशी क्यों
तेरी उत्ताल तरंगों से जी है बहलता सभी का 
तूं तो खुद के प्यास की तलब बुझा पाता नहीं
पर शेर,ग़ज़ल,कविता तुझी से संवरता सभी का ।

देखा उगते सूरज को हमेशा तेरे आगार से
देखा चाँद ढलता भी समाते तेरी आगोश में
मुश्किल थाह पाना समंदर तेरी गहराई का
मोतियों का भण्डार भी कोख़ के तेरी कोश में ।

चांदी जैसी चमकती दुधिया सी मौज़ें तेरी
बयां करतीं,फन के हो कुशल अदाकार तुम 
इतना हुनर तुममें आया कहाँ से समंदर
कैसे लगा लेते आकर्षण का बाज़ार तुम ।

देखा क्रोध भी ज्वार भाटे सा अति का तेरा
क्यों अवश होता सीमाओं की हदें तोड़कर
फिर मुड़ जाता मौन,निश्छल अबोध की तरह
बर्बादी,तबाही का बदसूरत मंज़र छोड़कर ।

जाने बिना भीमकाय आकार की उपलब्धियां
माफ़ करना कसा बेवजह तंज समंदर देवता
समुद्र मंथन से ही फूटी थी अमृत की धारा
जाना जग के लिए क्या तेरी समंदर विशेषता ।

आगार---गृह,घर
 शैल सिंह 

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