रिश्तों में मिठास घोलने रंज,भेदभाव की दीवार ढहाने
पर्व दीपोत्सव आया सर्वहित संकल्प का थाल सजाने ।
सुख,समृद्धि,भाईचारे का पर्व दीवाली तुमसे ही दीपक
सज क़तार में जगमग जग सारा होता तुमसे ही दीपक
रात अमावस की काली तुम चीर तिमिर का सीना दीप
कर देते भोर सी निशीथ,शुभ पर्व प्रकाश का मना दीप ।
जब सारी दुनिया सोती प्रशान्त नीरव में धुनि रमाते हो
आकर्षित कर अग्निशिखा से शलभों को झुलसाते हो
अंधकार हरने को जैसे आलोक बिखेरते हो कण-कण
वैसे दो वर मनुज को शुचि भाव हृदय भर करें समर्पण ।
माटी का तन जला दीये ने जग में बिखराया उजियारा
प्रज्वलित हो सारी रात्रि भी निज तले झेला अंधियारा
किस तप साधना में लीन किसलिए निरन्तर जले दीप
तिल-तिल,जल-जल किसलिए ज्योतित होते रहे दीप ।
अखिल सृष्टि लिए हो जगमग अपनी गात जला डाले
दिया क्या कृतघ्न जगत ने अपना अस्तित्व मिटा डाले
किस माटी का पुतला तूं निस्तब्ध यामिनी में निःस्वार्थ
जगमग पग-पग बाहर,भीतर जल करता रहा पुरुषार्थ ।
वंदनवार सजा द्वार सब खींच रंगोली चौखट आँगन में
माँग रहे कर जोड़ ख़ुशी,हर्ष,आनंद हो सबके दामन में
धूम धड़ाका छोड़ पटाखे खा खील बताशे और मिठाई
हर्षित हो गा नाच रहे बच्चे,बूढ़े,नौजवान दुन्दुभी बजाई ।
अन्धकार को देने मात दीवाली आई लेकर नव सौग़ात
हर घर हर दर पधार रहीं महालक्ष्मी,है ना अनोखी बात
दीपदान कर मुँह मीठा कर सबने सबको दिया बधावर
मन्द-मन्द बुझा दीया उगी ऊषा की लाली लगा महावर ।
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें