रविवार, 30 अक्तूबर 2022

तन्हाई ने सीखा दिया जीने का गुर

        तन्हाई ने सीखा दिया जीने का गुर 


कभी शरच्चन्द्रिका सी विहँस अद्भुत जगत के दरश करा देती 
कभी झटक परिहास कर धूसर विश्व में छोड़ चली जाती तन्हाई
कभी यादों,सोचों का साम्राज्य खड़ा कर गहन सन्नाटा देती चीर
कभी मन के निर्मम,बोझल तम को आलोक दिखा जाती तन्हाई  ,

कभी अन्तर कर देती क्लेशित,कभी नाभाष प्रफुल्लता भर देती
कभी निराशा के अंचल हर्षातिरेक से आस की पूर्णिमा भर देती
कभी तन्हाई के नैराश्य जमीं पर सुख-दुःख के सरसिज बो देती
कभी जीने की राह सुझा जाती कभी झट धीरज संचित खो देती ,

कभी विलास की रानी बनकर मृत स्पन्दन में किसलय भर देती
कभी अलौकिक,अद्भुत लोक में पहुँचा मन मतवाला कर देती
कभी नयनों में खारा सागर कभी अविच्छिन्न उत्साह से भर देती
कभी एकाकी जीवन उपवन,शीतल पवन बन सुरभित कर देती ,

कभी हताश,निराशा,विषाद,अवसाद की ऊसरता मिटला जाती
कभी जीवन सरिता का उद्गम बन,मरुमय वक्ष उर्वरा बना जाती
कभी बाल सहचरी बन तन्हाई ,तन्हाई की नीरवता सहला जाती
कभी ख़ुशी का अलख जगाती कभी ज्वाला बन गात जला जाती ,

कभी तो कुत्सित भाव जगाती कभी कोलाहल मन का पढ़ लेती
कभी बैठ पखौटे पे कल्पनाओं के कविता की कड़ियाँ गढ़ देती
कभी समर्पित हो अभिव्यक्तियां प्रखर चुपचाप सृजित कर देती,
कभी चुन-चुनकर स्वतंत्र भाव हृदय में,क्लान्त कवि के भर देती

कभी ये निर्वाक् अविचल भाव से कई सुख के आयाम जुटा देती
कभी ख़ामोश सिमट सीने में,उमग मधुऋतु की आस लगा लेती
कभी उफ़नाती मसि बन उत्साहित,अनंत शब्द भंडार जुहा देती
कभी आश्रय बन मन के व्याकुलता की अरुण ध्वजा फहरा देती ,

जीवन की गोधूलि बेला का पतझड़,सभी उन्मत्त बहारें लौट गईं
कुछ दिन सुख के घन छलका सुख की अब सारी चंचल रैन गईं
अब नहीं नया कुछ होने वाला अपने सब साथ छोड़कर चले गए
बहुत विदारक चिर शान्ति व्यथा की दाह पास छोड़कर चले गए ,

तन्हाई का प्राँगण,भावों,कल्पनाओं,स्मृतियों के खिलते पुष्प यहाँ
निर्जन एकांतवास को बना देती सुहागन श्रृंगार सजाती मौन यहाँ,
उम्र के सूने छरीले तट का सुनसान किनारा,सौन्दर्य निहारे कौन
पीर अपरिमित ममता की,वात्सल्य की,फिर आलिंगन धारे कौन । 

                                                                               शैल सिंह


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