रविवार, 25 सितंबर 2022

क्रान्तिकारी कविता शब्दों की परिमिति लांघी रे बहती स्याही की धार

क्रान्तिकारी कविता 

हस्त कलम गहते ही दहाड़ कर भरने लगी हुंकार 
शब्दों की परिमिति लांघी रे बहती स्याही की धार ,
तोड़कर बंधन विविध भीति के द्विजिहा ने की वार 
चल गया ख़ंजर काग़ज़ पर उर ने जो उगली उद्गार ।

परिमिति--सीमा      
भीति--भय,डर                                        

क्रमशः--

जब-जब सांप-सपोलों के,फन हमको फुफकारेंगे
ताल ठोंककर कहते जी,हम मौत के घाट उतारेंगे,

कबतक मलते रहेंगे हाथ वो घात के पांव पसारेंगे
दूध पिलाया ठर्रा तो जूतमपैजारम से भूत उतारेंगे ,

क्या समझे हो मरदूदों जो जी में आएगा बक दोगे
अभिव्यक्ति की आजादी पे  थोबड़ा तोड़ भोथारेंगे ,

संपोलों शरण में रहने वालों ग़र ऐसे आँख तरेरोगे 
ज़रा ना होगी देर आँखों से आग उगल भक्ष डारेंगे  ,

अगर शहीदों की परिभाषा पड़ी तुम्हें समझानी तो
तत्काल जन्नत के रस्ते का सरजाम अनेक संवारेंगे ,

अपने ही देश से कर बग़ावत दिखालाता तूं है तेवर
औक़ात तेरी बतलाने को तुझे धो-धो और कचारेंगे ,

जिस थाली में ख़ाकर पामर,पिशाच सुराख़ करेगा
ग़र जपे राग गैरमुल्क़ का ऐ कृतघ्नों खाल उघाड़ेंगे , 

जिन जयचंदों की मिलीभगत से अशांत वतन है ये
उन मतिमंद,देशद्रोही,ग़द्दारों को भी खूब निथारेंगे ,

साज़िशों का ग्रास बनें फ़ौजी चौकसी में सरहद पर 
तो क्या शत्रु करे ज़श्न हम हाथ पर हाथ धरे निहारेंगे, 

तूने कर्णधारों,शूरवीरों के परिवारों को बिलखाया है
अन्धाधुन्ध तोपों के बौछारों से मगज़ तेरा भून डारेंगे ,

नरपिशाचों,भेड़ियों क्या अम्मीयों ने हैं संस्कार दिए
हरे रंग का चढ़ा फ़ितूर जो पांव तले रौंद ललकारेंगे ,

शुभचिंतकों,रहनुमाओं सुनो आतंकी सरगनाओं के
निर्दयता से ज़िस्म से अंतड़ी जाहिलों नोंच निकारेंगे ,

छलनी हुआ है क़लेजा देख क्षतविक्षत जवानों को 
सिर बाँधा कफ़न तेरे रक़्त से माँ का पांव पखारेंगे ,

दीया तेरा भी करेंगे गुल हनुमनथप्पाओं के बदले 
क्यूँ तूने उकसाया पुरखों तक का ताबूत उखारेंगे ,

हद हो गई हद से बाहर रटन अहिंसा का त्यागेंगे
प्रतिज्ञा लेते हैं बर्बरता से तेरा अंग-अंग चटकारेंगे ,

हर बार हुआ आहत विश्वास कितने वंश हम खोये 
किस हर्ष से ऐसे कृत्यों पर अंश को तेरे पुचकारेंगे ,

इक अशफ़ाक़उल्ला वतन लिए झूल गए फंदे पर
तैमूर की ये औलादें कालिख़ देश के मुँह पोचारेंगे ,

खाक़ होता क्यों विश्वपटल पर देख धमक हमारी
धाक से जा तेरी जमीं पे केसरिया केतु लहकारेंगे ,

जब तक सभा मौन थी तूने देश का चीर खसोटा
अब चक्र सुदर्शन धारे गिरधर चूलें तेरी खखारेंगे ,

गजनी की,नपुंसक,नाजायज़ ऐ नाशुक़्र औलादों
करो न कई अफ़ज़ल पैदा अब्बा को भी पछारेंगे ,

तूं कुरान के निर्देशों को कुकर्मों का ढाल बना़ले
हम गीता,रामायण का पावन मन्त्रोचार उच्चारेंगे ,

अरे ग़द्दारों जगाओ स्वयं में राष्ट्रभक्ति का जज़्बा
क्या तब होश में आयेगा जब ईश तुझे धिक्कारेंगे ,

हर घड़ी हदस में जीवन तूं भी बैरी से मिल जाता   
सैलानि के शहर अकाल यहाँ कैसे वक़्त गुजारेंगे ,

बनी है अखाड़ा रण की मनोरम कश्मीर की वादी 
कैसे इत्र  सी केसर वाली महक फ़िज़ा में फुहारेंगे ,

कितनी बार सहा वार अपनों ने भी दर्द खूब दिया
सत्तर हूरों के आशिक़ों अब हम तेरी क़ब्र संवारेंगे ।

                                      शैल सिंह

  









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