तुम हाँ तुम
कितनी बार घटा बन उमड़-घुमड़ बरसी मेरी घनीभूत पीड़ाकाश कभी पोंछ दिए होते तुम स्नेह में बोर-बोर ख़ुद पोरों से ,
जो अभिव्यक्ति पिरो गीतों,छंदों में अलापी थी मेरी मन वीणा
काश कभी व्यथित हुए होते सुन दर्द भरे आरोह-अवरोहों से
उर के अतल समंदर ना जाने कितने थे बेशकीमती रत्न छिपे
काश कभी पैठ खोज लिए होते तुम अंतर्मन के गोताखोरों से
कलमवद्ध कर कविता में उर के अनमोल मोती थे पिरो दिए
काश कभी मन से पढ़ तुम भींग गये होते दर्द भरे कुहोरों से
काश कभी मन से पढ़ तुम भींग गये होते दर्द भरे कुहोरों से
उर्वशी,रम्भा अप्सराओं सी कहाँ तुझे मेरी देह से नशा मिली
काश योगी का तप भंग करने के होते मुझमें ढंग छिछोरों से।
शैल सिंह
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