जीवन राग
ना जाने किस बला की नज़र लग गई है
कि मस्ती भरा आलम कहीं खो गया है
किलकारियों को भी ग्रहण लग गया है
आकर्षण भी ना जाने कहाँ सो गया है।
जहाँ बेला,जूही,चम्पा सुवासती थी चमेली
वही हो गई है मरुभूमि सी मन की हवेली
प्रेम राग रूठ गया अन्तर्मन के घोंसलों से
कंटीली कंछियाँ फूटीं हृदय के अंचलों से।
चिंताओं,तनावों की घेरि आई कारी बदरी
प्रेम की धरा पर रेगिस्तान जैसी रेत पसरी
अरमान सूखा,सूख गयीं रसपगी भावनाएं
वक्त के परों पर उड़ विलीन होतीं करुनाएं।
जरुरत है जीवन में फिर से राग रंग भरना
उर की स्वच्छ वेदी पे विकार आहूत करना
आन्तरिक सफाई कर के पौधे संस्कार की
सुन्दर पुष्प खिल सकें रोपें सूखी संसार की।
बड़े-बड़े मॉल, शहर, कालोनी चौड़ी सड़कें
दब जाये ना मानवता इस मोह में सिमट के
प्रगति की हूँ पक्षधर विस्तारों का उद्देश्य भी
सीमित यन्त्र में न खो जाये कहीं मूल ध्येय ही ।
मंहगे मोटरकार,बंगले चिन्ताग्रस्त इंसान क्यों
सुविधाएँ,साधन सम्पूर्ण फिर मन अशांत क्यों
भवनों में रहने वाले क्यूँ रूग्ण खिन्न आजकल
हँसता,मुस्काता दिखता क्यूँ न कोई आजकल ।
नींद भी नसीब नहीं गुदगुदे बिछे बिस्तरों पर
नींद की खा-खा गोलियां सो रहा इन्सान हर
हँसता,मुस्काता दिखता क्यूँ न कोई आजकल ।
नींद भी नसीब नहीं गुदगुदे बिछे बिस्तरों पर
नींद की खा-खा गोलियां सो रहा इन्सान हर
महल भौतिक संसाधन सड़कें क्या बनाकर
कि पीछे छूट जाये मानवता ऐसे विकास कर ।
बाजारवाद,भौतिकवाद बस अर्थ की प्रधानता
संवेदनशून्य हो गए हम इन्द्रजाल में संलिप्तता
कैसी ये विडम्बना देखो जप,तप,ज्ञान,मान,दान
कि पीछे छूट जाये मानवता ऐसे विकास कर ।
बाजारवाद,भौतिकवाद बस अर्थ की प्रधानता
संवेदनशून्य हो गए हम इन्द्रजाल में संलिप्तता
कैसी ये विडम्बना देखो जप,तप,ज्ञान,मान,दान
मृगमरीचिका सी तृष्णा में भूले हैं सब उपादान ।
गाँव,देश,प्रान्त का उत्थान हो,हो मन में भावना
सपनों की शैया पर मृदुल अरमान ऐसे पालना
हो अंतःकरण स्वस्थ, हो अभ्युदय का पदार्पण
तभी होंगे आनंदित हम ले सुख का रसास्वादन ।
शैल सिंह
गाँव,देश,प्रान्त का उत्थान हो,हो मन में भावना
सपनों की शैया पर मृदुल अरमान ऐसे पालना
हो अंतःकरण स्वस्थ, हो अभ्युदय का पदार्पण
तभी होंगे आनंदित हम ले सुख का रसास्वादन ।
शैल सिंह
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