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कविता ''आख़िर वो है कौन '

कविता  आख़िर वो है कौन खो न जाएँ भाव कहीं कलम हाथ ने गह ली  दर्द, खुशी, गम ,तन्हाई, उदासी शब्दों ने पढ़ ली उमड़े -घुमड़े उद्गारों की लेखनी नब्ज़ पकड़ ली अनकही अभिव्यक्ति मेरी काव्य कड़ी में गढ़ दी मन की मौन कथा व्यथा पन्नों पे उसने ने जड़ दी । तुम  हो मेरी आत्मबोध   तुमसे करके आत्म विलाप  मैं सहज हो लेती हूँ। आत्मलोचना तुम हो मेरी, आत्मवृतान्त तुझे सुना  मैं सहज हो लेती हूँ।  अस्मिता का बोध कराती  हँसि,खुशी,दुःख तुझसे बाँट  मैं सहज हो लेती हूँ।  तुम मेरे हर रंगों की पहचान  तेरा स्वागत कर  निजी ज़िन्दगी के दरवाजों से  मैं सहज हो लेती हूँ।  तूं मेरी चुलबुली सखि  बेझिझक अक्सर कर  तन्हाई में तुझसे बातें   मैं सहज हो लेती हूँ।  आत्मविस्मृति की परिचायक तेरी पनाहगाह में आकर  मैं सहज हो लेती हूँ। अन्तर के छटपटाहट को भाँप  मुझे सहज कर देती हो।  कभी वजूद को ढंक लेती हो  कभी उजागर कर देती हो।  कभी तो भटका...

वजह दिलक़श शह से तेरा मुझे बेज़ार कर देना

 वजह दिलक़श शह से तेरा मुझे बेज़ार कर देना  पहलू से महकती चलती संदल सी मतवाला कर निगाहों के  निमंत्रण  से मदिरालय में दीवाना कर , तेरी आँखों के भी सागर में देखा इश्क़ की लहरें कश्ती मेरे इश्क़ की उतराये सागर में उस गहरे देखे मिज़ाज  आशिक़ाना  इन उफनाती लहरों के  चलो मिलें साहिल पर तोड़ ज़माने के सभी पहरे , ग़र अल्फाज़ मुकर जाएं हृदय का हाल बताने से पलकें झुका बता देना अन्तर का राज निग़ाहों से अंतर की नदी का कलकल नाद हृदय सुन लेगा हटा घूँघट हया का चाँद निकल आना घटाओं से  , गेसुओं के झुरमट में बसा दिल आबाद कर देना आरजू को मेरी नज़राना दिल में उतार कर देना मदहोश अदायें कीं आजकल गुम नींद रातों की   वजह दिलक़श शह से तेरा मुझे बेज़ार कर देना , हमदर्द बनकर मुक़म्मल नब्ज़ टटोल लिये होतीं मौन हसरतों,अहसासों का कुछ मोल दिये होतीं छोड़ निकम्में लफ़्जों को बंदिशें तोड़ संशयों की दिल बोझिल ना यूँ रहता फ़ख्र स...

दीवाली पर कविता '' आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना ''

      दीवाली पर कविता  शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना हर्ष और उल्लास का पर्व दीवाली  रिश्तों में खूब गर्माहट लाना अंधेरा दूर भगा स्नेह लूटाना  नभ तारे शरमायें हो पावन तेरा आना शत-शत   अभिनन्दन  माँ लक्ष्मी तेरा आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना धवल ज्योति से  उजियारा कर नफ़रत की दीवार ढहाना ईर्ष्या,द्वेष मिटा प्रेम,सौहार्द्र बरसाना  रौनकता से शान्ति का साम्राज्य बिछाना शत-शत   अभिनन्दन  माँ लक्ष्मी तेरा आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना काली रात अमावस की कर आसुरी वृत्तियों का प्रतिकार कण-कण प्रकाश बिखराना अनन्त काल तक जग रहे तेरा दीवाना शत-शत अभिनन्दन  माँ लक्ष्मी तेरा आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना मन का भाव बतासे सा मीठा  अन्तस्तल खील सा खिलाना   खुशियों की सौगात लुटाकर शुभागमन से पर्व ये परमानन्द बनाना  शत-शत  अभिनन्दन माँ  लक्ष्मी तेरा आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना ।     ...

गांव पर कविता '' भोजपुरी की मिठास में गांव बसता जहाँ है ''

            गांव पर कविता  बासी-बासी  सी लगती  शहर की  फिज़ां है मेरे गांव सी कहाँ मिलती यहाँ ताज़ी हवा है , सर्दी,गर्मी,वर्षा,वसंत भी अनूठे  मेरे गांव के  शहर के कोलाहल में दिन गुजरता कहाँ है खुले आसमान के पटल तले दूर-सुदूर तक लहलहाते खेतों में हरियाली दिखती जहाँ है , वो गाँव की रुखी रोटी का स्वादिष्ट निवाला तृप्ति का बोध पिज्जा,बर्गर में होता कहाँ है देख गांवों  की रौनक़  लगता रोज इतवार है इतवार का शिद्दत से इन्तज़ार होता यहाँ है , कुनबे-कुटुम्ब संग गूँजता हँसी का ठहाका चौपाल  जगत प र  इनारों की लगता जहाँ है सड़कें,बिजली,मकां,पार्क फिर भी वीरानी  दीयों के रौशनी में मेरा गांव हँसता जहाँ है , जहाँ चहचहा अगवानी पाँखी करें भोर की महकते पुष्पों से वन-उपवन हर्षता जहाँ है जहाँ रिश्तों की रेशमी डोरियाँ है भाईचारा  भोजपुरी की मिठास में गांव बसता जहाँ है , नीम,बरगद,पीपल की जहाँ छाँव...

क्षणिका

क्षणिकाएं  क्यूँ इतना वक़्त ली ज़िन्दगी खुद को समझने औ समझाने में समझ के इतने फ़लक पे ला छोड़ दी किस मोड़ पे ला विराने में बोलो अब उम्र कहाँ है वक़्त लिए वक़्त बचा जो खर्च कर रही तुझे बहलाने में। कुछ लोगों ने महफ़िलों में  ये आभास कराया जैसे पहचानते नहीं ,  मैंने भी जता दिया  जैसे मै उन्हें जानती नहीं ,  शिद्दत से तराशें ग़र हम हौसलों को कद आसमां का खुद-बख़ुद झुक जायेगा राह कोसों हों दूर मंज़िल की चाहे मगर खुद मंजिलों पे सफर जाकर रुक जायेगा।                    

तन्हाई पर कविता गुजरे मौसम की याद दिलाती

तन्हाई पर कविता   गुजरे मौसम की याद दिलाती यादों के शुष्क बिछौने पर भीगीं-भीगीं सिमसिम रात तन्हाई से करती बातें नैनों की रिमझिम बरसात  जाने कहाँ-कहांँ भटकाती रात , पलकों की सरहद तक आ-आ  नींद काफूर हो जाती है बेचैन रात की आलम का सिलवट दस्तूर बताती है उन्नीदी आंँखों में बीति सारी रात , हठ करती बचपन की क्रिड़ायें अबोध अल्ह़ड़पन  यौनापन का  काश कि मुट्ठी में बंद कर रखती कुछ हसीं पलों के छितरेपन का कभी ना होती इतनी  बेवफ़ा रात , हर पहर,रैन की क़ातिल होकर  गुजरे मौसम की याद दिलाती   बेदर्द वीरानी  बन मेरी हमदर्द    रख  पहलू में हँसाती और रुलाती तन्हा और बनाती तन्हाई की रात , ना जाने क्यूँ तन्हाई में यादें ज़िक्र करती हैं पुराने मंजर का तल्ख़ी और उदासी भर देतीं काम करती हैं जादू-मंतर का ख़्यालों में डूबी,उतराई सारी रात                                  शैल सिंह ...

'' तिरंगा तन सजा सोचा न था तेरा मन दुखा दूं माँ ''

एक शहीद की अन्तर्व्यथा माँ के लिए  ऐ मेरे मित्रों मेरे गांव तुझसे मेरे हिन्द ये कहना है शहीदों के मज़ारों पर नित्य दीप जलाये रखना है , याद आए मेरी दिल को जरा समझा लिया करना लगा सीने से तस्वीरों को मन बहला लिया करना हर्गिज़ कोसना मत देश को ऐ त्यागमयी माताओं लाल था देश का तेरा मन को बतला दिया करना , समझना गहरी नींद सोया हूँ तेरी लोरी सुन के माँ जां कुर्बान वतन पर की कि तेरा कर्ज़ चुका दूँ माँ आँसू अच्छे नहीं लगते योद्धा की माँ की आँखों में तिरंगा तन सजा सोचा ना था तेरा मन दुखा दूं माँ , माँ तेरे कोंख का मैं ऋण चुका पाया नहीं तो क्या प्रिये का साथ जीवन भर निभा पाया नहीं तो क्या भारत माँ के चरणों में थी चाहत  वीरगति  हो प्राप्त  अमर बलिदान की गाथा लिख सोया नहीं तो क्या , राष्ट्र के ग़ौरव लिए माँ लाड़ल़ा तेरा प्राण गंवाया है नमन कर लो उन्हें जिनने तुझे आजादी दिलाया है कायर आँसुओं से क्यों भिगोती दाम...

मंच पर कविता आरम्भ करने से पहले,समां बांधने के लिए

मंच पर कविता आरम्भ करने से पहले,समां बांधने के लिए मेरी आँखों का पीके मय सभी मदहोश बैठे हैं नशा नस-नस तरल कर दी सभी ख़ामोश बैठे हैं, पलकें हो गईं शोहदा झपकना भूल बैठी हैं जब से आई हूँ महफ़िल में सभी खो होश बैठे हैं, ग़र हो तालियों की गूँज तो भंग तन्द्रा सभी की हो महफ़िल हो उठे जीवन्त करतल ध्वनि सभी की हो, बंधन खोल हथेली का सुर साजों से नवाज़ें ग़र हो अन्दाजे-बयां माहौल वाह-वाह धुन सुना दें ग़र, शब्दों से करूं सराबोर महफ़िल हो जाए गदगद  गर दें हौसला रंच भी मन के तार छेड़ूं अनहद, गणमान्य अतिथियों का करूं भरपूर मनोरंजन दर्शक दीर्घा में बैठे सज्जनों करुं शत-शत नमन वन्दन ‌।                      शैल सिंह

हिंदी पर कविता , हिंदी का हो राज्याभिषेक

हिंदी का हो राज्याभिषेक  हिंदी की ख़्याति बढ़ाने को इसे हमें सशक्त,समृद्ध करना है सहर्ष अपना कर इसे प्रतिष्ठित कर विश्वपटल पर भी प्रसिद्द करना है , हिंदी हमारे भारत का गौरव हिंदी सुशासन,सुराज की धार है भाल सजा बिंदिया हिंदी करती हिंदुस्तान का श्रृंगार है , गंगाजल सी पावन हिंदी उर्दू,संस्कृत से भी मिलनसार है , कितनी सीधी,सहज,सरल,मधुर हिंदी हृदय का उद्गार है रिश्तों की डोरी,ऊष्मा प्राणों की हिंदी मौसमी गीतों की फुहार है हिंदी का विस्तार करें हम ये ऋषि,मुनियों के वाणी की टंकार है , मन से मन के तार जोड़ती  हिंदी मधुर,मनोहर रसधार है कण-कण में है घुली हुई हिंदी कल-कल बहती जलधार है , देश,दुनिया में भी गूंज रही आज़ हिंदी की ललकार है बांधती सुर में गीत,ग़ज़ल को हिंदी मीठी कर्णप्रिय झंकार है , भावों में करुणा,पीर पिरोने वाली  हिंदी एकमात्र आधार है सब भाषाओँ पर भारी पड़ती हिंदी जब भरती हुंकार है , स्वतः उतरती मन के आँगन कवि मन के कृतियों का संसार है हिंदी का हो राज्याभिषेक हम हिन्दुस्तानियों की...

'' देश लिए शहीद हुए एक सैनिक की भावना ''

देश लिए शहीद हुए एक सैनिक की भावना  तेरी आन लिए प्रान किया क़ुरबान प्यारे देश मेरे मेरे प्रति तेरा भी तो देश कुछ फ़र्ज होना चाहिए , किस हाल में महतारी,हाल क्या है प्राण प्यारी की किस हाल में दुलारा,हाल क्या लाड़ली दुलारी की  जो सहारा बूढ़े पिता ने देश तेरी आन लिए वारा है उस घर का भी तुझपे देश कुछ क़र्ज़ होना चाहिए , तेरे सम्मान,आन,बान लिए माता ने उजाड़ी कोख़ ज़िन्दगी भर लिए जिसने आँचल रखी समेट शोक  जिसने राखी की कलाई भेंट दी देश की भलाई पे     दुख के पहाड़ का भी देश कुछ अर्ज़ होना चाहिए , जिसके गाँव का चराग़ बुझा मुरझाये फूल बाग़ के जिस द्वारे पर  अर्थी  आई  ध्वजा में  लपेटी संवार के   जिन आँसुओं की धार नहीं टूटे भाई को निहार के दर्द,बलिदानी गांव का,देश कुछ दर्ज़ होना चाहिए।   देश भक्ति पर कुछ पंक्तियां थोड़ा शर्म करो सियासत करने वालों नमन तो करो देख जवानों का जज़्बा सेना तुम्हारी ही...

किसी की शायरी, कविता का जवाब मेरे भाव में

 किसी की शायरी, कविता का जवाब मेरे भाव में                   ( १ ) यहाँ धरती की सारी वस्तु सारे मकान मेरे हैं ये हिन्दूस्तान मेरा है बता दे जा कोई उसको वोे किरायेदार हैं तो रहें किरायेदार की तरह  रास्ता बाहर का भी बता दे जा कोई उसको ,    हमारे बाप तक न पहुँचें हम तक रहें अच्छा   भलमनसाहत यही कि इन्हें बर्दाश्त करते हैं जो असुरक्षित यहाँ पर जिनकी सांसें है बन्दी वो कहीं जा ठिकाना ढूंढ लें आगाह करते हैं , ज़ुबां कैंची सी चलती एहसानफ़रामोशों की अरे जान हथेली पर तो हम लोगों की ग़द्दारों  अलग-अलग वस्तियां हमारी और तुम्हारी हैं न ज़द में हैं न रहते हैं विश्वासघातों के ग़द्दारों  सब मिल बांट रहें ग़र समझें देश को अपना ना कोई दुश्मन यहाँ उनका न जान खतरे में हमारी घर-गली में रहके,जमाते धौंस हमी पे  बोलें तोल शब्दों को मत घोलें झाल मिसरे में ।                           ...

कविता '' सच्चाई ने जीती बाज़ी ''

        '' सच्चाई ने जीती बाज़ी '' दिन भर आग उगल सूरज जला नहीं निढाल हो गया सारी रात जला एक दीप जल कर भी निहाल हो गया , ग़म सहना सीखा मैंने नीरव रजनी के गहन अंधेरों से नीरस ज़िंदगी करने वाला भी खुद ही कंगाल हो गया , कभी रंगा नहीं किसी भी रंग में मैंने अपने अंदाज़ को जब छोड़ी नहीं ख़ुद्दारी मैंने क़ुदरत भी बेहाल हो गया , देखो अपना ढलता सूरज मेरे किस्मत से खेलने वालों   सच्चाई ने जीती बाज़ी कहने लगे लोग कमाल हो गया , नमन करने वालों उगते सूरज को मेरा भोर भूला दिए   देखो बुरे लम्हों का साया खुद छूमंतर पाताल हो गया।                                                       शैल सिंह                                          

बेटियों पर कविता,अँधेरों को कर ना दें बेपरदा ख़ामोशियाँ मेरी

बेटियों पर कविता अँधेरों को कर ना दें बेपरदा ख़ामोशियाँ मेरी  हमें अम्बर को छूना जी खोलो बेड़ियाँ मेरी जोश के पर पे उड़ने को बेचैन परियां मेरी  लहरों का नज़ारा बैठ साहिल पर देखें क्यों  भंवरों से करें अठखेलियाँ दो कश्तियाँ मेरी ,   दे दो हक़ हमें भी,आजादी हमें भी मर्दों सी ग़र मज़लूम ना होतीं न लगतीं बोलियां मेरी  उड़ना हमें भी हवाओं में उन्मुक्त पाँखी सा  अस्मत की ना खायें  नोंच  दरिंदे बोटियाँ मेरी , हमें खुल कर सांसों को लेने की इजाज़त दो करतब खूब दिखाएंगी हुनरमंद बेटियाँ मेरी  नहीं होना उत्सर्ग कनक पिंजरों के वैभवों में बग़ावत पे उतर ना जायें कहीं दुश्वारियां मेरी , ख़ुद को जला घर के अँथेरों को किया रौशन  किरण बाहर भी बिखरानी फैलें रश्मियाँ मेरी  अबला और ना बन देनी हमें हैं  अग्निपरीक्षाएँ  अँधेरों को  कर  ना  दें  बेपरदा  ख़ामोशियाँ  मेरी ,  ख़ुद चमकूँ  जुगुनू सा मैं दे दूँ चाँद को भी मात बा...

कविता -ढोंगी बाबाओं पर व्यंग्य

ढोंगी बाबाओं पर व्यंग्य आओ बच्चों तुम्हें सिखाएं, सम्पत्ति अर्जित करने के नायाब तरीके, झऊवा जैसे बाल बढ़ा लेना , छुट्टे बकरे के पूंछ सी झबरी दाढ़ी राम-रहीम का तमग़ा लटका लीला करना बनकर खूब मदारी, जर,जोरू,जमींदारी अनुयायी तेरे देखना सारी ज़ागीर लुटा देंगे बहन,बेटियों के अस्मत की भी देखना अंधभक्त बन्दे बाट लगा देंगे,   साध्वियों,सन्यासिनियों पर डोरे डालना लेना पड़े भले ही दो चार दस पंगे ग़र कोई करेगा बुलंद ख़िलाफ़ आवाज़  तो मुर्ख अशिक्षित लेकर लाठी डन्डे, विरोधियों,प्रशासन पर पिल पड़ेंगे वानर सेना सा तेरे पाले पागल ये गुंडे नागिन डांस करेंगे तेरे लिए अंधभक्त ये , डाल कर खुली आँखों पर पर्दे, राष्ट्रीय सम्पत्तियों को तहस-नहस कर प्रशासन के विरुद्ध रोष जताएंगे भक्ति के मद में डूबे ओ नकली ढोंगी  तेरे लिए ये मौत को भी गले लगाएंगे, नपुंसक तो सबसे पहले बनाना   अपने सेवकों और सेवादारों को हैसियत और रुतबे की धौंस दिखा धमकाकर रखना भक्त परिवारों को, खुद को ईश्वर का साक्षात् अवतार बता कुकर्मों से मस्त बनाना अंधि...

ग्राम्य जीवन पर कविता

                                  ग्राम्य जीवन पर कविता  किन शब्दों में बयां करुं बदरंग हुए मेरे ग्राम्य जीवन के यथार्थ दर्शन  को , जिस माटी में बचपन बीता आँगन की ओरी तले वर्षा का लुत्फ़ उठाये थे  चींटे को  पतवार बना  खेले कागज की नाव में   कीचड़ में सने घर आये थे , भूला नहीं  रस ऊख का,होरहा चने,मटर का,गाय-बैल,खेतों का टूटा मेढ़ झूला नीम डाल का, गाँव का मेला,घनी लटें लटकाये बरगद का बूढ़ा पेड़ , पहचान खोते गांव,टूटते-बिखरते रिश्ते,आधुनिकता में संलिप्त अपनापन  ना पूर्व सा परिदृश्य दिखा ना माई,काकी भौजी नामों वाला तृप्त सम्बोधन , जिस माटी के परिवेश में दांव-पेंच,छल-छद्म,धोखेबाजी,मक्कारी नहीं थी जहाँ ईर्ष्या,द्वेष,क्लेश,शोषण,बलात्कार,असामाजिक तत्व,गद्दारी नहीं थी , आज भौतिकवादी युग ने गुमराह कर मानवीय मूल्यों का ह्रास कर दिया वैमनस्यता,धूर्तता,चालबाजियों ने आदर्शवादी ढांचे को है ग्रास...

देश पर कविता कहीं दुर्गन्ध नाक में दम ना कर दे

 देश पर कविता  कहीं दुर्गन्ध नाक में दम ना कर दे उर्दू है तहज़ीब वतन की हिन्दुस्तान का हिन्दी है श्रृंगार सांस्कृतिक सभ्यता संस्कृति है बाईबल,गीता,ग्रन्थ,कुरान हैं हार,     हिंदुस्तान की न्यारी धरती हमारी  जहाँ भाई-चारा आपस में सौहार्द्र  जहाँ भिन्न बोलियां,वेश भूषा भाषाएं विभिन्न धर्मों के समावेश का प्यार  , जहाँ इबादत,प्रार्थनायें गुरु ईसा के साथ    जहाँ भोर अजान की,गूंजे चालीसा का पाठ  जिस सभ्यता ने विश्व को दिखाया आईना  उस मुल्क़ को सेंध लगा दुश्मन रहा है बाँट  , भारत माँ के विस्तृत आँचल को आज  सियासत की गन्दगी ने दूषित कर डाला छल,छद्म का बिछाकर जाल चौमुखी जनमानस की आत्मायें कुत्सित कर डाला , भारतीय मूल्यों को ताक़ पर रखकर        कुछ लोग देख रहे मुल्क़ का चीरहरण  करते किस आजादी की मांग ये देशद्रोही  ज़मीर बेंच देश का चाह रहे हैं विध्वंसकरण,   जागरुक होना है दुष्परिणाम से पहले...

पन्द्रह अगस्त पर्व मनायें हम प्रण प्यार से

बोली-भाषा से इतर,जाति-धर्म से ऊपर दिल में राष्ट्रभक्ति अभिमान  देश की भू पर भले शीश कट जाये कभी शीश नहीं झुकायेंगे चाहे जो देनी क़ुरबानी मातृभूमि पर प्राण लुटायेंगे  देश की अस्मिता लिए हम आपसी  भेदभाव मिटायेंगे   अखंडता,एकता की जला मशालें विकसित राष्ट्र बनायेंगे   भारत के उज्जवल भविष्य हेतु नौनिहालों को हमें जगाना है     हिन्दवासियों को बाँध एक सूत्र में हिन्दुस्तान को स्वर्ग बनाना है सकुशल जन-जन,अमन,चैन हो भारत माँ पर सर्वस्व  लूटायेंगे हम  वीर शहीदों के शौर्य की गाथायें गाकर उरों-उरों  में क्रांति लायेंगे हम  नमन तुम्हें वतन  पे मिटने वालों सरहदों पे रहने वालों तुझे मेरा सलाम  वतन महबूब मेरा,करते जी-जान से  मोहब्बत  माँ भारती तुझे मेरा सलाम                                                                 शैल...

सावन पर कविता

           सावन पर कविता  है सावन के महीने की अजी बात निराली मन्त्रमुग्ध कर देता क्षिति बिखेर हरियाली , तोड़ संयम बूँद-बूँद सावन बरसे झमाझम उसर,बंजर,परती पृथ्वी का करे सीना नम , बाढ़,आपदा,भूकम्प से छलनी करता मन रंग धानी रंग में जग को भी बनाता दुल्हन , इन्द्रदेव हर्षित हो करते सावन में जल वर्षा गाते दादुर,मोर,पपिहे नाचती शिखिनी हर्षा , गरज नभ से कारी घटायें गिरातीं बिजलियां  उत्तेज क्षुद्र नाले,नौले उफ़ान मारतीं नदियां कजरी,तीज,झूला,मेघ,मल्हारों भरा मौसम नज़ारा देख हरा-भरा लगे चित्त को मनोरम , तन विरहन का जलाता विरह की अगन में सावन प्रेम का अंकुर उगाता युवा जहन में , धूप बदली की मस्तानी,सुहानी लगती भोर सोंधी महक माटी की शोख़ पवन करे शोर , नागपंचमी,जन्माष्टमी,रक्षाबंधन का त्योहार सब मौसमों में सावन लगे सबसे ख़ुशग़वार । क्षिति---धरती     शैल सिंह                     

मैं नेह की शीतल समीर हूँ

मैं नेह की शीतल समीर हूँ मैं नदी हूँ मन की नदी,  बहुत कुछ अपने अतल अंतर में समेटे हुए,  मुझमें भी समुद्र सी लहरें हैं उफान और तरंगें हैं, मैं समन्दर की तरह भीतर के अबोध रेत को , किनारों पर उगल ऊंची-ऊंची छलांगें नहीं लगाती।  मैं नदी हूँ  मन की नदी शान्त,चिर स्निग्ध , अपने विस्तार को, मन के परिसर में , चुप्पी की चादर में ओढ़ाकर , बाह्य जगत से दूर रखती हूँ। जब कोई शरारती कंकड़ , मेरी सतह से छेड़खानी करता है , मैं एक बुलबुला छोड़ उस परिदृश्य को , जज्ब कर लेती हूँ ,अपने मन के भूगर्भ में , पर उस शरारती तत्व को पथरी के रुप में, वही पथरी जब अतिशय बड़ी हो , असहनीय दर्द का आकार लेती है , तब कहीं मैं फूटकर टेढ़ा-मेढ़ा राह बनाती हूँ , और कर देती हूँ नदी को छिछला , मैं नदी हूँ ,मुझमें रहस्य है ,मर्म है,संयम है , एक सीमा तक स्थिरता और सहनशीलता भी मैं बावड़ी हूँ, बावली नहीं, उतावली नहीं प्रात में मेरे मन के विशाल प्रांगण में सूर्य किरणों संग अठखेलियां करता है सांध्य में चाँद मेरी गहराई में समां तारे सितारों संग रंगरेलियां क...

घूँघट जरा उलटने दो

         जितने भाव उमड़ते उर में जितने भाव उमड़ते उर में शब्द  ज़ुबां बन  जाते  हैं जहाँ अधर नहीं खुल पाते झट सहगामी बन जाते हैं  खुद में ढाल जज़्बातों को  मन का सब कह जाते हैं |  '' घूँघट जरा उलटने दो '' आयेंगे मेरे प्रियतम आज आँखों में अंजन भरने दो संग प्रतिक्षित मेरे संगी-साथी आज मुझे संवरने दो , घर की ड्योढ़ी साजन को पल भर जरा ठहरने दो दिवस काटे दर्पण सम्मुख नयन में उनके बसने दो , जी भर किया सिंगार उन्हें जी भर जरा निरखने दो हों थोड़ा बेज़ार वो उर उनका भी जरा करकने दो , देखें चांदनी का शरमाना वो घूँघट जरा उलटने दो संग खेलूं सावनी कजरी बांहें डाल गले लिपटने दो , अपलक देखें इक दूजे को थोड़ा आज बहकने दो देखूं चन्दा की भाव-भंगिमा थोड़ा आज परखने दो।         '' कोई याद आ रहा है '' रुमानियत भरा ये मौसम शायरी सुना रहा है गा रहीं ग़ज़ल फ़िज़ाएं अम्बर गुनगुना रहा है , मुँह छिपाये घटा में बादल खिलखिला रहा है इन्द्रधनुष भरे मृदुल आह्लाद मेघ लुभा रहा है , प्रफुल्ल पात-पात गले लग ...

सम्पूर्ण जगत में बस एक ही भगवान हैं

सम्पूर्ण जगत में बस एक ही भगवान हैं एक ही हैं भगवान मगर हैं नाम अनेकों गढ़े गए नाम के चलते ही हृदय बहुत हैं विष भी भरे गए , अरे प्रकट हो त्रिशूलधारी भटकों को समझाओ परब्रम्हपरमेश्वर, एकाकार एक ही हैं बतलाओ, स्वार्थ लिए  लोग  तुझे बाँटते  विभिन्न  धर्म-पंन्थों में दहशत फैला अशांति मचा रखे मुल्क़ों-मुल्क़ों में, ग़र ना समझें ये अपना रौद्र तांडव रूप दिखाओ जिनके उत्पात से त्रस्त सभी गह के वज्र गिराओ, बड़ा लिया तूने इम्तिहान और देखा खून खराबा मची नाम पे तेरे मारकाट तूं बैठा है कौन दुवाबा, हम तेरी श्रद्धा के साधक बस राम मंदिर बनवा दो जो मांगें जन्नत का प्यार उनका प्राण हूरों पे वार दो                                                   शैल सिंह

कई दिनों की बारिश से आजिज होने पर

कई दिनों की बारिश से आजिज़ होने पर, बन्द करो रोना अब बरखा रानी बहुत हो गया जल बरसानी भर गया कोना-कोना पानी , नाला उफन घर घुसने को आतुर, जल भरे खेत लगें भयातुर, रोमांचित बस मोर,पपिहा,दादुर , कितने दिन हो गए घर से निकले पथ जम गई काई पग हैं फिसले बन्द करो प्रलाप क्या दूं इसके बदले , कितने दिन हो गए सूरज दर्शन तरसे धूप लिए मन मधुवन कपड़े ओदे,चहुँओर सीलन रस्ता दलदल किचकिच कर दी मक्खी,मच्छर से घर भर दी गुमसाईन सी दुर्गंध हद कर दी , बिलें वर्षा जल से भरीं यकायक घूम रहे जीव खुलेआम भयानक जाने कब क्या हो जाए अचानक , बहुत हो गई तेरे अति वृष्टि की जा कहीं और बरस कई जगहें सृष्टि की क़ाबिलियत दिखा अपने क्रूर कृति की ।                           शैल सिंह

मेघ से उलाहना

  मेघ से उलाहना उमड़-घुमड़ घनघोर घटाएं  नख़रे दिखा-दिखा लौट जाती हैं  चाहतों का घोर उल्लंघन कर जी भर-भर मन को जलाती हैं  , देखें कब बूंदों के सोंधेपन से भरेंगे नथुने,घटा बोध कराती है कब रिमझिम बारिश की फुहारों से सुखी धरती की कोख भींगाती है , ना जाने कब अँधेरों में टिप-टुप कहीं-कहीं बूंदा-बांदी कर जाती है दूसरे ही पल तैश में आकर ऊष्मा पुनः अपना रौब दिखाती है , लगे हण्टर सी तपन सूर्य की रेत सी वसुंधरा तड़फड़ाती है नभ पर लगी सबकी है टकटकी जाने ये किस ऐंठन में भाव खाती है , बेहाल हैं जीव-जंतु,वन्य प्राणी देखें कब ताज़पोशी वर्षा की कराती है जरूरत के मुताबिक कभी भी ये  नहीं नाशपीटी रंग में आती है , कहीं बाढ़ का क़हर कहीं मार सूखे की कभी-कभी बेढब ये व्यवहार दिखाती है कभी अनहद बरस-बरस सब कुछ  मनबढ़ सैलाबों में बहा ले जाती है , बरस सरसा जाओ सीना धरती का  मिटाओ पल में ऊष्मा क्यों सताती हो बनती क्यों कोपभाजन हर जुबान की   कड़क-कड़क कर अवसाद भर जाती हो , सुनो गुहार म...

ग़ज़ल " "कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की

कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की  ये कैसा नशा प्यार का के बेवफाई के शहर में टूटी उम्मीदें हैं बरकरार आज भी भले बदल गए वो आते-जाते मौसम की तरह इन आँखों में है इंतजार आज भी कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की आस में दिल है बेक़रार आज भी  दरमियां रिश्तों के खिले फूल से अल्फ़ाज़ जो कानों में ताज़ी है झंकार आज भी बहा ना ले आँखों की दरिया का सैलाब कहीं फ़िक्र यादों का है अम्बार आज भी कैसे समझाऊँ ख़्वाबों,साज़िशों के बाजार में दिल हो रहा है शिकार आज भी ये कैसा फलसफ़ा ज़िंदगी,मोहब्बत-दोस्ती में   दर्द का मिले है गुब्बार आज भी |                                     शैल सिंह

कविता '' हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी ''

            कविता  हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी  इक दिन जाना सबको पास उसी के  जो तीनों लोकों का स्वामी है भले-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा रखता ऊपर वाला अन्तर्यामी है ,  मत कहा करो जी तेरा-मेरा  सब यहीं धरा रहा जायेगा माटी का तन माटी में मिल इक दिन ब्रह्मलीन हो जायेगा , बस ऐसे तत्वों को संग्रह करना  जिससे मिले सुख,आनन्द भरपूर हँसी तेरी बन जाये दवा रुग्ण की जो निःशुल्क जिसमें प्रचुर मात्रा में गुर , विवेक की सम्पत्ति बाँट सभी में संग धैर्य का रखना हथियार सदा रक्षा कर विश्वास,संस्कार की रखना रिश्तों में प्रीत की घोल सम्पदा , मुख पर ऐसी मुस्कान बिखेरो कि पराये भी शामिल होकर हँसे आँसू तेरी आँखों के होकर भी बहते ही पराया होकर ख़ूब विहँसे , हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी चलो हम-हम का रिस्ता जोड़ें इंसानियत,मानवता सबपर भारी दम्भ हैसियत का सस्ता छोड़ें , ज्ञान,सम्मान,श्रद्धा,नम्रता,दया जीवन तन के,शृंगार आभूषण हैं प्रार्थना,विश्वास अदृश्य भले हों पर कर देते अस...

कविता एक शहीद की पत्नी की दारून व्यथा

एक शहीद की पत्नी की दारून व्यथा डाल ओहार ताबूत तिरंगे की अर्थी आई पिया की मैं सन्न रह गई जन सैलाब का उमड़ा हुज़ूम दर देख शव संग पिया की मैं सन्न रह गई , ख़त का मजमून पूरा पढ़ा भी न था शहादत की खबर यूँ बता दी गई थे जिनके लिए बेसबर दो नयन झट चंन्दन की चिता सजा दी गईं , राह तकती महावर लगी एड़ियां सुर्ख हीना हथेली रची रह गई गजरे की लड़ियों गूंथीं वेणियां सेज फूलों सजी की सजी रह गई , तोड़ बिखरा गईं कांच की चूड़ियां झट माथे की बिंदिया मिटा दी गई मेरे सिंगार के सारे असवाब भी धू-धू करती चिता में जला दी गईं , श्वेत वस्त्रों का अभरण पेन्हाया गया स्वर्णाभूषण वदन से हटा दी गईं चाँद से मुखड़े पर थी भरी माँग जो टार घूँघट झट लाली उठा दी गईं , टूटा कैसा क़हर मुझपे हा जिन्दगी ज़िन्दगी भर को बिधवा बना दी गई ओढ़ जाऊँ कहाँ लिबास वैधव्य का शोक संग जब सगाई करा दी गई । मिली कैसी सजा मेरे जाबांज़ को जवां ज़िन्दगी वतन पर लूटा दी गई देशभक्त सीमा प्रहरी की ये दुर्दशा मेरी हसीं देखो दुनिया मिटा दी गई , एक क़तरा गिरा देश की आँख से दो बूँद श्रद्धांजलि की बस चढ़ा दी गईं लुटा संसार मेरा सदा के ल...

गर्मी पर कविता '' हे सूरजदेव तरस खाओ ''

हे सूरजदेव तरस खाओ अकड़ इतनी नहीं अच्छी जरा तेवर को वश में रखो भीषण ताप से झुलसाना दिनकर कलेवर पास में रखो , भाती भोर की शीतलता उजाला दिन का,सूरज जी बनकर अग्निपिण्ड का गोला  मचाते क्यूँ हड़कम्प लपट से जी, कड़कड़ाती धूप का क़हर वदन है आग सी झुलसे हे सूरजदेव तरस खाओ घटा अम्बर से अवनि बरसे , इस मनमौजी प्रकोप से कब  बताओ निज़ात दिलाओगे कब बारिस की फुहारों से दहक तन की मिटाओगे पौधों को मार गया लकवा खड़े निर्जीव क्यारी में पांखी उन्मुक्त पड़े दुबके नीड़ों की चारदीवारी में , लगता जान ले लेगी असहनीय ऊफ्फ़ ये गर्मी बताओ लाओगे कब मानसून चिलचिलाती धूप में नरमी जीना हो गया दूभर लिसलिसाता तन पसीने से मिले चन्दन सी शीतलता   चढ़े तन वस्त्र झीने से , तेरे लू के थपेड़ों की तीखी मार से बेहाल तमतमाना छोड़ बिछाओ ना घुमड़ते घन का महाजाल तेरी ऊष्मा से सैर-सपाटे चौपट अवकाश गर्मी की सुबह अलसाई बड़ी होती कड़ी दोपहरी गर्मी की , हे इन्द्रदेव निमन्त्रण देते तुझे बाग़,तड़ाग...

'' माँ पर कविता ''

'' माँ पर कविता '' सबसे प्यारी सबसे न्यारी पूज्यनीया है माँ माँ से बढ़कर दुनिया में नहीं कोई बड़ा इन्सान माँ के आगे सब कुछ बौना बौना लगे भगवान माँ दुनिया की पहली अवतरण जिसे कहते हैं माँ कि तेरे जैसा कोई नहीं  माँ न तेरे जैसा सुन्दर नाम , माँ शब्द शहद से मीठा आत्मीयता सोम सी माँ की माँ सृष्टि सृजन की रचईता सारे अनुष्ठान चरण में माँ की सबसे बड़ा तीरथ माँ का दर्शन चारों धाम परिधि में माँ की माँ त्याग,तपस्या करुणा की देवी पूजा,मन्त्र है जाप जहाँ की कि तेरे जैसा कोई नहीं  माँ न तेरे जैसा सुन्दर नाम , तेरे गर्भ के गहन प्रेम की उपलब्धि मैं माँ तेरे बिना कहाँ सम्भव था दुनिया में मेरा आना कितनी पीड़ा दर्द सहा के   मैं दीदार  करूँ  दुनिया का  सारी दुनिया तुझमें समाई कभी कर्ज़ चुके ना माँ का कि तेरे जैसा कोई नहीं  माँ न तेरे जैसा सुन्दर नाम , तूं ममता की पावन मूरत तेरा आँचल सुख का सागर रात-रात भर जाग सुलाई मुझको लोरी गाकर तेरे आँचल की छाँव में छलका निस दिन स्नेह का गागर भींच सीने में सिर सहलाई ख...

राम मन्दिर पर कविता

मुख़्यमंत्री आदित्यनाथ योगी जी से राम भक्तों की गुज़ारिश     राम मन्दिर पर कविता  भज-भज के सब राम के नाम साध रहे बस अपने काम राम के दिन कट रहे छतरी में बैठे तिरपाल की बखरी में , भिंगो रहीं बारिश की बूँदें तपा रहा तन घाम हवा का निर्मम सह आघात ठिठुर रहे सर्दी में मेरे राम, सहा ना जाये राज में तेरे योगी जी राम का ये अपमान जल्दी से करवाओ बाबा जी राम मन्दिर का आलीशान निर्माण , भौंकने वाले भौंकेंगे उन्हें भौंकने दीजिये योगी जी इस बात पे जल्दी अमल कीजिये साथ में लेकर मोदी जी, कहीं लक्ष्य अधूरा रह ना जाये जल्दी खोजिये हल समाधान असली गर्भ गृह पर ही मंशा,हो   राम मन्दिर का आलीशान निर्माण , अत्याचारी बाबर की निर्मम बर्बरता  विध्वंस थी की रघुवंशी भव्यता करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का सवाल इसपर क्यों मचा विवाद,बवाल , इसी स्थल पर कौशिल्या माँ की कोख़ से  थे लिए राम जी अद्द्भुत अवतार अयोध्या नगरी हिन्दू धर्म का धाम,हो  राम मन्दिर का आलीशान निर्माण , कुछ से तो मोर्चा लेना होगा कुछ से वार्ता का प्रावधान दरक...

योगी जी पर कविता

         योगी जी पर कविता  महर्षि रूपी मोती लाये मोदी जी खंगाल के ये कीमती नगीना रखना पलकों बिठाल के , पारखी नज़रों से लाये खोज,हीरा तराश के यू.पी.वालों कद्र करना योगी जी कमाल के , गरजता जो सिंह सा औ दहाड़ता है शेर सा खुद के लिए न जिसका कुछ क्षुद्र स्वार्थ सा वह ऐसा कर्मयोगी करता हिन्दुत्व की पैरवी जिसपे जनता हुई न्यौछावर मुग्ध राग भैरवी , ऐसा कोहिनूर  जाँच-परख़ ला सौंपा जौहरी यू.पी.के तख़्त पे बैठा दिया दमदार चौधरी जो निष्पक्ष द्वेषरहित करता निःस्वार्थ सेवाएं स्वधर्म का हिमायती फ़िदा जिसपे फ़िज़ाएं , विरोधी तत्व ठप्पा लगाते सम्प्रदायवाद का  इनका भाव राष्ट्र चिंतन अलख राष्ट्रवाद का  भगवा रंग आत्मरुप हुंकार हिन्दुत्ववाद की काट फेंक दिया जनता ने जड़ वंशवाद की , सर्वोपरि है राष्ट्र निर्माण हो उन्नत समाज का निज की न कोई चाहत संकल्प कल्याण​ का जिसने सुख,विलास तज धरा पथ निर्वाण का वह संत बन गया है चहेता विस्तृत अवाम का।                       ...

'' कविता '' , '' वीर शहीदों के खूँ का बदला ''

        पाक की बार-बार नापाक हरकतों से आजिज़ एक सैनिक की मोदी सरकार से याचना ,हाल ही में सीमा पर हुए वीभत्स कांड से सारा देश आहत है और मोदी जी से सैनिकों के बंधे हाथ को खुली छूट देने की गुज़ारिश तथा कवायद में लगा है ,इसी परिप्रेक्ष्य में मेरी ये सामायिक रचना जो शायद अवलोकन करने वाले का भी दिल खौला दे और शहीदों के प्रति तथा देश के प्रति उन्माद जगा दे |      वीर शहीदों के खूँ का बदला अब सही न जाये हानि जी थोड़ा करने दो मनमानी जी   जल्द खुली छूट दो मोदी जी सर ऊपर हो गया पानी जी सेनाओं का बढ़ा मनोबल करने दो उत्पात तूफानी जी , कड़ी धूप के भीषण ताप में भी डटा रहूँगा असह बरसात में भी चाहे सर्दी की हो जैसी ठिठुरन तूफांन,बवंडर की रात में भी डिगा रहूँगा सीमा पर सीना ताने दुश्मन बैठा हो चाहे घात में भी , डर नहीं बम,गोली बौछारों से वतन की ख़ातिर मक्कारों से चाहे भूख बिलबिला दे आहारों से दर्द सह लैस रहूँगा औज़ारों से जब तक तन आख़िरी सांस रहेगी दहलाऊँगा खंग की टंकारों से , कभी पग पीछे नहीं हटाऊँगा चाहे कितनी भी हों दु...

'' हम प्रेम का वृक्ष लगाएं ''

                     कविता  विनम्रता और सहजता लाएं हम सब अपने जीवन में क्यों तोड़ते जा रहे नित हम मानवता की परिपाटी को अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रहार संवेदना के ढाँचे पर उष्ण होती हृदय की तरलता,सामंजस्य का होता ह्रास उदारता,सहिष्णुता,त्याग,दया का ,उर मरुस्थल होता आज प्रेम स्वरूपा प्रकृति से कुछ नहीं सीखा हम सबने निःस्वार्थ भाव से वृक्ष सदा हमें फल-फूल दिया करते हैं फलों से लदी डालियाँ सदा झुकी शालीन क्यों रहती हैं बिना शुल्क नदियां हमें सदा जल देती रहती हैं फिर भी नहीं कभी कोई उलाहनें देती हैं इनकी मौन प्रवृति से प्रेरित हो हम प्रेम का वृक्ष लगाएं नदी की देख दानशीलता हम प्रेम की नदी बहायें सबसे कठिन है प्रेम सभी से कर पाना और निभाना पर प्रेम जरुरी जीवन में,हम समरसता की पौध उगाएं अभिमान,घमंड,अहंकार से जीवन नरक बन जाता है करुणा,संवेदना,परमार्थ,सौहार्द्र से हम जीवन स्वर्ग बनायें |                         ...

अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो

अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो सुख-दुःख किससे बाँटे प्राणी हर हाल में दोनों ही देते संत्रास सुख में ईर्ष्या दुःख में उपहास, ऐसी हुई अवधारणा आज की सम्बन्धों में आ रही ख़टास अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो जग वालों ना यूँ रहो उदास , निश्छल मन से सम्बन्धों को जोड़-जोड़ करो हास-परिहास समानता के पथ पर चल कर मानवीय उदारता का दो आभाष  , सर्वमंगल की करो कामना रखो परोपकार का मन में वास स्वहित से तुम ऊपर उठकर स्वार्थ,संकीर्णता को दो वनवास, इसी में सबका सुख निहित है व्यापक भावनाओं से भरें उजास जीवन दो दिन का ना विषम बनाएं जाना सभी को परमात्मा के पास ।                                  शैल सिंह

'' हर शब स्याही चांद की भी रोशनाई में ''. एक मधुर गीत

कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में, जबसे गये तुम छोड़ नगर लगे वीरां-वीरां मुझे शहर हवा गुलिस्तां से भी रूठ गयी अजनवी लगे हर गली डगर फब़े न जिस्म लिबास भरी तरूनाई में अब वो आबोहवा रूवाब नहीं अरूनाई में, कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में, तुझे जबसे नज़र में कैद किया कभी ख्वाब ना देखा और कोई तेरी याद में गुजरी शामों-सहर दूजा शौक ना पाला और कोई खनखन बोले ना चूडी़ सूनी कलाई में रूनझुन पैंजनी भी ना झनकी अंगनाई में, कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में, इस कदर हुआ बदनाम इश्क हमें दर्द का तोहफा मुफ्त मिला ख्वाहिशों पे पहरे लगे दहर के मौसम भी रंग बदला यही गिला हर शब स्याही चांद की भी रोशनाई में जहर लगे है कूक कोईल की अमराई में, कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में, इक दिन खिले थे हम गुंचोंं की तरह किरनों की तरह बिखरा जलवा तेरे शुष्क मिजाज से हैरां दिल  गुजरी क्या इस दौरां तूं बेपरवा आनंद नहीं महफिलों की रंगों रूबाई में थिरकन में भ...

भजन

   '' भजन ''    भगवन तुम तो बसे हो मन-मन्दिर ईंट-पत्थरों के शिवाले क्यूँ जाऊँ जब मन के नगर में तेरा महल क्यूँ चौखट-चौखट सर टकराऊँ , तेरा रूप धार ली काया मेरी प्रतिदिन अंग भभूत लगाऊँ रच-बस गए हो प्रभु तुम मुझमें नख-शिख रोम-रोम सुख पाऊँ , याचनाओं का अर्ध्य भेंट दी दु:ख का मृगछाल बिछाऊं निशि-वासर हूँ लीन भजन में दीन-दशा का भोग चढ़ाऊँ , तेरे पांव पखारें नीर नयन के दुःख की गागर छलकाऊँ कहीं छवि ओझल ना जाये डर से पलकें ना झपकाऊँ , तुम ध्यान मग्न मेरे उर गह्वर में क्यूँ गुफ़ा कंदरा मन भटकाऊँ जब मुझमें समाहित तुम प्रभुवर क्यूँ दर-दर की जा ठोकर खाऊँ , एक बार नज़र तूं फेरे इधर क्यूँ मन्दिरों की घण्टी खटकाऊँ जब नज़रबन्द कर लिया तुझे दिन रात दरश तेरा पाऊँ ,                       शैल सिंह

होली अबकी बार

मोदी जी की जीत पर  होली अबकी बार मोदी लहर लील गई सबके सियासी चाल बेदाग छवि पे मेहरबान जनता हुई निहाल उन्मत्त उमंगों की होली होगी अबकी बार क्योंकि बनेगी यूपी में बीजेपी की सरकार नाना नवरंगों के गुलाल,उड़ेंगे अबकी बार दिल से किया सभी ने है मोदी को स्वीकार शेर,हुंकार भरेगा दुबकेंगे रंगे सभी सियार क्योंकि धरती,नदिया,हुए अम्बर एकाकार नमो-नमो जयकार में चित हैं सब भौकाल किसी की बम्पर हार तो कोई हुआ बीमार रंग अबीर पिचकारी ख़ुशी से गाल हैं लाल कितने वर्षों बाद देश में आया ऐसा भूचाल सात समंदर पार चर्चा,मोदी नाम बेमिसाल विरोधी सुरों की अटकलें कैसे हुआ कमाल ।                                            शैल सिंह 

नारी दिवस पर

नारी दिवस पर  मैं शक्तिस्वरूपा नारी जननी सम्पूर्ण जगत की त्याग,दया,ममता की मूरत गौरव निज संस्कृति की मैं लक्ष्मी,दुर्गा,सरस्वती हूँ अवतार अनवरत शक्ति की युग निर्मात्री लिए सीमाएं,लक्ष्मण रेखाएं क्यूँ बनीं प्रकृति की सीता,द्रौपदी,गंगा,कुन्ती को कीं कलुषित मानसिकता कुत्सित की वही सबल बन अबला निष्ठुर जग की निर्मम अवरोधों को खंडित की सह समाज के विषम थपेड़े नियति से लड़ खुद लिए उसने नव राह सृजित की उड़ रही गगन में,हर क्षेत्र में बढ़-चढ़ हिस्सा स्वयं स्वरूपा ख़ुद को महिमामंडित की ।                                                                                  शैल सिंह   

वसंत ऋतु पर कविता

   वसंत ऋतु पर कविता  बड़ा सुहावन मन भावन लगे वसंत तेरा आना थोड़ी सर्दी थोड़ी गर्मी मौसम बड़ा सुहाना , इंद्रधनुष ने खींची रंगोली सज गई मधुऋतु की डोली बिखरा दी अम्बर ने रोली धरती मांग सजा खुश हो ली छितरी न्यारी सुषमा चहुँदिश कलियाँ घूँघट के पट खोलीं आई  ठूँठों पे तरुणाई भर गई उपहारों से झोली, बड़ा सुहावन मन भावन लगे वसंत तेरा आना।, देख हरित धरणी का विजन हुआ मन मयूर मस्ताना पीली चूनर सरसों लहराई उसपे तितली का मंडराना पी मकरंद मस्त भये मधुकर मद में मगन दीवाना गूंजे विहंगों की किलकारी कुञ्ज-कुटीर  मलय भर जाना , बड़ा सुहावन मन भावन लगे वसंत तेरा आना , अमराई महके बौराई मधुकंठी तान सुनाये देख वासन्ती मादकता नाचे वन,वीथिक मयूरा बौराये पछुआ-पुरवा की शीतल सुरभि नशीला गन्ध जिया भरमाये पापी पपीहरा पिउ-पिउ बोले सुध विरहन को पी की सताये , बड़ा सुहावन मन भावन लगे वसंत तेरा आना , चित चकोर तिरछी चितवन से अपने सजन से करे निहोरा मूक अधर और दृग से चुगली करे दम-दम सिंगार-पटोरा प्रकृति...

चुनावों की बेला में ,मेरी ये कविता

 एक विनम्र निवेदन देश की जनता से  हमें विश्व गुरु है बनना हर मन सपना ये बुनवाना होगा अराजकता,अत्याचार,अनाचार का कोढ़ दूर भागना होगा राष्ट्रीय पुष्प का कर अभिनन्दन बहुमत का अर्ध्य चढ़ाना होगा ईमानदारी,नैतिकता,जनसेवा हित कमल का फूल खिलाना होगा , हिंदुस्तान के हिन्दुओं को अकल तभी अब आएगी जब उसकी ही सरजमीं पर फसल दूजी क़ौम उगायेगी सपा,बसपा,काँग्रेस को तो नफ़रत अयोध्या नगरी के राम से ग़र नहीं चेता हिन्दू अब भी मिट जायेंगे हम अपने ही चारों धाम से , गढ़-गढ़ में कमल खिला दे जनता ग़र यूपी के कीचड़ में चोर,उचक्के सारे माफ़िया बंद हो जायेंगे जेलों के सीकड़ में ना गुंडागर्दी हत्या,बलात्कार ना होगा कैराना,दादरी जैसा काण्ड ना एक मंच पर सांठ-गांठ कर खड़े होंगे साथ फिर सारे भड़ुवे भांड़ , हाथी,पंजा,साईकिल ने बना दिया जैसे यूपी को चम्बल मज़हब की दीवार खड़ी कर करवाते रहे आपस में दंगल इक थैली के चट्टे-बट्टे बन गए सियासत कर इक दूजे के संबल मेधावों को कर दरक़िनार सदा वर्ग विशेष का ये करते रहे सुमंगल , कितना जाति,धर्म के...

तुम कहाँ हो बोलते

सर्प दंश से भी बढ़ कर घातक तुम्हारा मौन है , तुम कहाँ हो बोलते बोलती तुम्हारी चुप्पियाँ हैं मौन की भाषा अबोली कह देतीं मन की सूक्तियां हैं , इतनी विधा के भाव समेटे अधर विराम चिन्ह क्यों हैं शब्दों को रखते मापकर स्वभाव इतना भिन्न क्यों है, क्या-क्या उधेड़ बुनकर दिन रात तुम हो जी रहे कौन सा ऐसा गरल जो मौन घोंट कर हो पी रहे, मौन तो हो तुम मगर बोलती देह की भित्तियां हैं किस खता पे सौगंध तुमको बन रही कड़वी पित्तियाँ हैं, किताब भर ब्यौरा समेटे क्यूँ रखते अधर के बंद पट अंदाज की चंठ झाँकियाँ झाँकतीं नैन के पनघट, जब कभी गर खोलते हो भानुमति का बंद पिटारा बस गोल मोल बोल करते चन्द सा अस्फुट निपटारा, जीने लिए इस किरदार को मजबूर क्यों हो बोल दो चुपचाप की इन खिड़कियों को भड़भड़ाकर खोल दो, मूल्यवान मेरे हजारों शब्द से मौन की कुपित दृष्टियां  हैं आत्मज्ञान की तुम खोज में मगर रहतीं तनी भृकुटियां हैं , वास्ता मुझसे अगर है मैं वजह हूँ मौन की तो ओ विरागी पूछती हूँ ढीठ बन मैं कौन हूँ, तुम बंद सीपी की तरह म...

देशभक्ति गीत

       एक देशभक्त सिपाही के उद्वेग का वर्णन गीत वद्ध कविता में , बाँधा सर पे कफ़न हम वतन के लिए जांनिसार करना मादरे चमन के लिए , मत प्रिये राह रोको कर दो ख़ुशी से विदा   भाल पर मातृ भूमि का रज-कण दो सजा दिल पे खंजर चलातीं हरकतें दुश्मनों की लेना सरहद पे बदला हर बलिदानियों का , है पिता का आशीष गर दुआ साथ माँ की प्रिये होगी विजय मुश्किले हर हालात की रखना इंतजार का दीया दिल में जलाकर सलामत रहा होगी बरसात   मुलाक़ात की , अश्कों के बाल दीप ना बुज़दिल बनाओ  ना कजरे की धार की ये बिजली गिराओ   पिघल न जाये कहीं मोम सा दिल ये मेरा  विघ्न के इस प्रलय की ना बदली बिछाओ , महबूब ये वतन तेरा वतन से प्यार करना  वतन की  आबरू लिए सुहाग  वार करना  माँग अपनी संवारो संकल्प के सामान से कंगना कुंकुम ना रोको न मनुहार करना , कायराना कमानों का न आयुद्ध जुटाओ  आरती के  था ल आज़...

नव वर्ष पर कविता

भय,आतंक से मुक्त हो नया साल ये सन सोलह ने कहा अलविदा नव वर्ष तेरा अभिनन्दन कर किया जग बेसब्री से इन्तज़ार नव वर्ष तेरा शत वन्दन कर , ठसक से नवागत साल ले आना नेमतें नई खुशियों की नियामतें पर्यावरण,देश,समाज का विकास है नवीन श्रृंखला में हमें तराशने , तुझसे उम्मीदें ख़ुशियों के सौगातों की मंशा कारनामों के नए-नए आयामों की पुलकित मन उल्लसित हर्षित जीवन हो महकें दसों दिशाएँ नूतन निर्मित कन हो ठहरे हुए वक्त को पर लग जाये नवागत वर्ष में जन-जन का उत्कर्ष हो धर्म,मज़हब की पट जाये गहरी खाई फिर ना सियासत,नफ़रत सा संघर्ष हो  , भ्र्ष्टाचार,ग़रीबी,फ़रेब,अन्याय का प्रेम,सौहार्द,स्नेह भाव से हो निष्कर्ष हिंसा,द्वेष,घृणा,निराशा,दुर्घटना को नव प्रभा निगल ले ऐसा हो नव वर्ष भय,आतंक से मुक्त हो नया साल ये दंगा,फ़साद,क़त्ल ना कोई बवाल हो नया साल हो तेरा ऐसा पूण्य आगमन बढ़े प्रभुत्व देश का हर का ख़याल हो , नित नव रंग भरो जीवन के उपवन में नवीन चेतना,ईमान का करो जागरण विमल हृदय,मन...