रविवार, 16 जुलाई 2017

ग़ज़ल " "कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की

कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की 


ये कैसा नशा प्यार का के बेवफाई के शहर में
टूटी उम्मीदें हैं बरकरार आज भी
भले बदल गए वो आते-जाते मौसम की तरह
इन आँखों में है इंतजार आज भी
कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की
आस में दिल है बेक़रार आज भी 
दरमियां रिश्तों के खिले फूल से अल्फ़ाज़ जो
कानों में ताज़ी है झंकार आज भी
बहा ना ले आँखों की दरिया का सैलाब कहीं
फ़िक्र यादों का है अम्बार आज भी
कैसे समझाऊँ ख़्वाबों,साज़िशों के बाजार में
दिल हो रहा है शिकार आज भी
ये कैसा फलसफ़ा ज़िंदगी,मोहब्बत-दोस्ती में  
दर्द का मिले है गुब्बार आज भी | 

                                   शैल सिंह

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