रविवार, 3 सितंबर 2017

कविता '' सच्चाई ने जीती बाज़ी ''

        '' सच्चाई ने जीती बाज़ी ''


दिन भर आग उगल सूरज जला नहीं निढाल हो गया
सारी रात जला एक दीप जल कर भी निहाल हो गया ,

ग़म सहना सीखा मैंने नीरव रजनी के गहन अंधेरों से
नीरस ज़िंदगी करने वाला भी खुद ही कंगाल हो गया ,

कभी रंगा नहीं किसी भी रंग में मैंने अपने अंदाज़ को
जब छोड़ी नहीं ख़ुद्दारी मैंने क़ुदरत भी बेहाल हो गया ,

देखो अपना ढलता सूरज मेरे किस्मत से खेलने वालों  
सच्चाई ने जीती बाज़ी कहने लगे लोग कमाल हो गया ,

नमन करने वालों उगते सूरज को मेरा भोर भूला दिए  
देखो बुरे लम्हों का साया खुद छूमंतर पाताल हो गया।  

                                                    शैल सिंह

                                         



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

बचपन कितना सलोना था

बचपन कितना सलोना था---                                           मीठी-मीठी यादें भूली बिसरी बातें पल स्वर्णिम सुहाना  नटखट भोलापन यारों से क...