बे-हिस लगे ज़िन्दगी --
बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है
क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रही है
अब तो ख़ुशी के दिन थे आये ग़म से मिला रही है।
ना लुत्फ़ अंजुमन में ना महफ़िलों में रंगत
दिल बुझा-बुझा सा लगे सांय-सांय हर तरफ
ना कुछ ख्वाहिशें बचीं ना कुछ अरमान बाकी है
ज़िन्दगी होगी बसर किस तरह सोच मन में उदासी है।
उदासी का कोई सबब नहीं क्यों बे-हिस लगे ज़िन्दगी
शाम लगे धुआं धुआं कोई ऐसा नहीं हो जिससे दिल्लगी
कैसी अकथ है वेदना कि अशान्त और विकल रहता मन
समझ न आता ऐसा क्या संताप कि विचलित रहता हरदम ।
क्यूं मायूस है ज़िन्दगी जाने किसकी है तलाश
खाली-खाली सा दिन लगे खाली-खाली सी रात
अजीब-अजीब से उठते दिल में ख़यालात
ऐ ज़िन्दगी अब बस कर ना कर ऐसे हताश।
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
कसक जगाती अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ जून २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आपका बहुत बहुत आभार श्वेता जी
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंमन में उठती टीस शब्दों में पिरोई पीर जानी-पहचानी लगती है. अपनी-सी कहानी लगती है. अभिनन्दन.नमस्ते.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आपको
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