" मूक भाव प्रेम के बीज रोपे इस तरह "
जो बातें मथें मेरे मन को, मन को तेरे
आ लब की मेंड़ों पर भी कह ना सकें
उसे कहने को जला लिए दीप नैनों ने
कह दिए उर की सब जो कह ना सके ।
कितनी जद्दोज़हद में रही व्याकुलता
मौन सब दिए बता दिए नैन भी जता
प्रेम के बीज मूक भाव रोपे इस तरह
जो अंकुरित हो रहे हमें तुम्हें भी पता ।
मेरे खोये-खोये मन का वजह हो तुम
स्वप्न नैनों में बसा किये ग़ज़ब हो तुम
यूँ लब की ख़ामोशियों से दो ना घुटन
करो प्यार प्रकट क्यूं नि:शबद हो तुम ।
नैनों के समन्दर से इतर बह हम चलें
अधूरी प्रीत जो रीत में बदल हम चलें
तैरें उर की नदी में करें संवाद लबों से
रात की बांहों में हों स्पर्श की हलचलें ।
जो मिज़ाज़ हो पसंद उसमें ढलूंगी मैं
नयन में प्रदीप्त हो दीए सी जलूंगी मैं
हिचकेंगी अधरों पर प्रेम की सुक्तियां
हमसफ़र बन साथ साये सी चलूंगी मैं ।
जाने क्यूं नहीं नींद मुझे आती है इधर
सुना है जागते तो हो तुम भी रात भर
इत्र सी ख़ुश्बू घोल हवा अहसासों की
महका जाती तेरा घर औ मेरा घर भी ।
तेरी चाहतों ने तो संवरना सिखा दिया
सावन के मेंह सा बरसना सिखा दिया
तसव्वुर में तेरी भींगे असबाब सब मेरे
मेरे सांसों को भी महकना सिखा दिया ।
नवविकसित प्रीत की कोंपलें ना कहीं
कुम्हला जाएं दब अंतर में ही ना कहीं
पारदर्शी,समर्पण,विश्वास,श्रेष्ठ तत्वों से
अव्यक्त उद्गारों को बो लें मन के मही ।
सरसी--सरोवर , असबाब--सामान
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें