कुछ क्षणिकाएँ
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा यही
बस मुस्कुराते जाईए
ज़ब्त कर सीने में ग़म
ज़ब्त कर सीने में ग़म
अश्क़ आँखों का पीते जाईए ।
ठण्डी-ठण्डी हवा रात की
आग़ोश में नींद के सुला गई
सपने सजे सुहाने ज्यूं पलकों पर
सपने सजे सुहाने ज्यूं पलकों पर
चहचहा भोर गुलाबी जगा गई ।
यादों मत भटकाओ रैना सारी
भूली-बिसरी बीती यादों में
गाकर लोरी मस्त सुलाओ
भरो ख़ुमारी आँखों में ।
भरो ख़ुमारी आँखों में ।
घूँघट के पट खोलो प्रिये
दो नयन दीदार को तरसे
महामौन जरा तोड़ो प्रिये
अक्षयसंवाद अधर से बरसे।
ऐसा दीप जला रे मन
जिसका असर दिखे चुहुंओर
जिस उजास के उजले तन पर
चले ना अंधियारे का जोर ।
धीरे-धीरे कटते जा रहे सभी शजर हैं
जंगल के जंगल वीरान हुए जा रहे हैं
उजाड़े जा रहे बसेरे निरीह परिंदों के
हरे-भरे अरण्य श्मशान हुए जा रहे हैं,
दो नयन दीदार को तरसे
महामौन जरा तोड़ो प्रिये
अक्षयसंवाद अधर से बरसे।
ऐसा दीप जला रे मन
जिसका असर दिखे चुहुंओर
जिस उजास के उजले तन पर
चले ना अंधियारे का जोर ।
धीरे-धीरे कटते जा रहे सभी शजर हैं
जंगल के जंगल वीरान हुए जा रहे हैं
उजाड़े जा रहे बसेरे निरीह परिंदों के
हरे-भरे अरण्य श्मशान हुए जा रहे हैं,
ठंडी ठंडी हवाएं वदन चूमें कैसे
लगी एसी कूलर में रहने की लत जब बुरी
देखें कैसे नयन ये भोर गुलाबी सुबह की
देखें कैसे नयन ये भोर गुलाबी सुबह की
लगी देर से सोकर उठने की लत जब बुरी।
पास कुछ भी नहीं मेरे,सुनहरे ख़्वाब के सिवा
डरती हूँ चुरा न लें कहीं दुश्मन बुने ख़्वाब मेरे ।
कौन महका गया है चमन मेरा फिर फूल से
किसने दीप से वीरां गुलशन चरागां किया है
मेरी आँखों में ख़्वाब फिर है किसने सजाया
आहिस्ता सांसों में घुल कर दीवाना किया है ।
मेरी हँसी और ख़ुशी से लोगों को गुरेज क्यूँ है
आख़िर लोगों को हँसी और ख़ुशी से परहेज क्यूँ है
मैंने कब रोका लोगों को ऐसे धन को अर्जित करने से
कि लोग विस्मय से देखते शैल बिंदासपन से लबरेज़ क्यूँ है ।
मैंने कब रोका लोगों को ऐसे धन को अर्जित करने से
कि लोग विस्मय से देखते शैल बिंदासपन से लबरेज़ क्यूँ है ।
जब भी हुई शान्ति भंग,क्षीण हो गये उत्साह,
जब-जब हिम्मत हारी मैं,छोड़ गई समृद्धि साथ,
हौसले जलाये रखे मेरी तमन्नाओं का अक्षुण्ण दीया,
कभी लक्ष्यों ने बुझने न दिया महत्वाकांक्षाओं का दीया ।
मुझे रोके ना कोई टोके मुझे
राह मन्जिल की बस आँखें देखतीं,
ये कंगन के बन्धन,अंजन नयन के
नहीं सिंगार की बेड़ियाँ रोक सकतीं,
नहीं सिंगार की बेड़ियाँ रोक सकतीं,
चाहे जो भी पाबंदियां लगें पंख पर
हर जंज़ीरें,उड़ानें हौसलों की तोड़ देतीं ।
हर जंज़ीरें,उड़ानें हौसलों की तोड़ देतीं ।
कभी-कभी सारी-सारी रात
नींद नहीं आती है आँखों में
नींद अघोरी भटकाती फिरती
नींद अघोरी भटकाती फिरती
जाने किन-किन बातों में
बचपन की अल्हड़ सुधियों का
बचपन की अल्हड़ सुधियों का
इक इक पन्ना उलट-पुलट
बैठ सिरहाने याद फक्क्ड़ी
कर जाती प्रायः उथल-पुथल।
आज मजबूर वक्त की हवाएं हुई हैं
क्यों बेवजह दोष दूं मैं जमाने को
जुदाई,तन्हाई बस दो घड़ी के लिए
क्यों बेवजह दोष दूं मैं जमाने को
जुदाई,तन्हाई बस दो घड़ी के लिए
क्यों दूं हँसने,आजमाने जमाने को
बिछड़ गया है मुझसे भले आज मेरा
लौ जल रही आस की कल मिल जाने को ।
ऐसे आलम के भले ही हवाले हुए हैं
मग़र वादों की फ़ेहरिस्त लम्बी निभाने को ।
शैल सिंह
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमाफ कीजियेगा स्लो नेट की वजह से दिखा नहीं फौलोवर गैजेट। हम तो पहले से हैं यहाँ :)
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचनाएं।
आभार आप का
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका यशोदा जी
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