नई बहू का आगमन पर मेरी कविता
नई बहू का आगमन छोड़ी दहलीज़ बाबुल का आई घर मेरे बिठा पलकों पर रखूँगी तुझे अरमां मेरे । तुम्हारा अभिनंदन घर के इस चौबारे में फूल बन कर महकना भवन ओसारे में आँगन उजियारा हो चाँदनी जैसा तुमसे पंछियों सा चहकना घर कानन हो जैसे । लो ये चाभी के गुच्छे संवारो घर अपना बस ये ही गुजारिश सबका मान रखना नया परिवार,परिवेश नया घर यह सही रखना सामंजस्य यहाँ कुछ पराया नहीं । सबसे सौभाग्यशाली समझना खुद को तुम भी मूल्यमान हो है जताना मुझको पुत्रवधू कह पुकारूं तुुझे अन्याय होगा जोडूं माँ-बेटी सा रिश्ता तो साम्य होगा । न कोई बंधन यहाँ न कुछ थोपना तुझपे करना इज्ज़त सबका बस कहना तुझसे पल्लवित,पुष्पित हो चहचहाना तूं आँगने ताकि बाँट सकूं सुख-दुःख मैं तेरे सामने । अक़्स देखना तुम मुझमें अपनी मातु का दूंगी खुशियां दुगुनी आँचल की छांंव का कुछ सिखलाऊं,समझाऊं दूं मैं नसीहतें खुशी से स्वीकारना अनुभव की ये नेमतें । शताब्दी से प्रचलित नकार...
"आओ मिलजुल कर हम सब, तम् के नीचे नेह का दीप जलाएं"
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
dhanyabad koushik ji
हटाएंthanks
जवाब देंहटाएंdhanyabad
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