शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

'नारी की फुफकार'

    नारी की फुफकार

आज की हर अबला भारत की
अब सबला बनकर जागी है
निरीह दया की मूर्ति ना समझो 
दबी चिन्गारी बन गयी बागी है । 

बहनों उठो पुकारता समय 
पद्मिनी सा जौहर दिखलाओ 
दुर्गावती,लक्ष्मीबाई सरीखी 
समय पर रणचंडी बन जाओ । 

अब गया वक्त देहरी भीतर 
बैठ सिंगार सजाने को 
माथे तिलक लगा मचली 
चूड़ी तलवार उठाने  को । 

तोड़ कर बन्धन पायल का 
और सुहाग की लाली का 
माँ अम्बा की ज्वाला बन 
हाहाकार मचा दे काली का । 

भारत का गौरव मेरा यौवन 
उसकी अस्मिता मेरी जवानी 
शस्य श्यामला मातृभूमि पर 
शत बार तरुणाई मेरी कुर्बानी । 

बाँझ,निपूती मत कह माँ 
कुछ अस्तित्व हमारा मानो 
हम भी ज़िगर के टुकड़े हैं 
हमें सुता नहीं सुत जानो । 

आँधी में भी जला करेगी 
निष्कम्प दीप की ज्योति 
सोते से अब तो जगा दिया 
माँ क्यों क्लान्त हो रोती । 

लिंग की भयावहता ने ललकारा 
चलो माँ का कर्ज़ उतारें 
दुहिता कपूत से लाख भली 
इस कटु मिथ्या की बाती बारें। 

लिप्सा में डूबे मानसिंह तो 
बहुत यहाँ पर आज भी हैं 
वह बहन नहीं जो छलना बन 
छल,जाये यह लाज भी है। 

उठा श्रद्धा के अतल सिन्धु में 
दमन का ज्वार धधकता आज
पृथ्वीराज की जोशीली आँखों का
सोणा सपना बन कर नाच ।  

राणा की बेटी हरगिज़ नहीं 
अब घास की रोटी खायेगी 
आज वही तोतली सयानी 
प्रण के रण में चेतक दौड़ायेगी । 

राष्ट्र हमारा गुजर रहा है 
भीषण षड़यंत्र के नारों से 
आओ भरें चेतना जन-जन में 
सुन्दर भावों के उद्दगारों से । 

जगो जगत की वीर बेटियों 
चुनौतियों से संघर्षिणी बनो 
देश भक्ति का उन्माद जगाकर 
दिशा-दिशा की सम्प्रेषिणी बनो । 

                                          'शैल सिंह' 

 

  


    


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