गुरुवार, 19 जून 2014

कल्पना का रूप

    कल्पना  का  रूप 


तुझे रिझाने मन्दिर आई
पूजा अर्चन थाल सजाई
हे निष्ठुर भगवान सुनो
मेरी रीति गागर भर दो ।

कैनवास के कोरे फ़लक पर
कल्पना ने इक चित्र उकेरा है
मन के भावों पर अनुरंग चढ़ा
तूलिका ने बहु रंग बिखेरा है ।

जिस मंजिल की तलाश मुझे
ऐ  राह  ले  चल  उस   तलक
कब  तक  भटकना  है लिखा
किस  लोक  में  है मेरा जहाँ
मन हर पल है सपना बुन रहा
कहीं ठहरा नहीं है अब तलक ।

इक आयाम  चाहत को मिले
साकार  कल्पना  का  रूप हो
गुलशन  में  मेरी ज़िंदगी के
हर रंग ,छाँह ,खिली धूप हो
तूं तो मन की सब है जानता
ऐ रब दे मन का मेरे भूप हो ।
                                   शैल सिंह 

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