कुछ ऐसी भी हैं पीड़ाएँ
झंकृत होतीं जब भाव तरंगें रेती फूल हृदय के उगते
विकृत हो जाती नैसर्गिकता जब निर्मम हो तुम हँसते ,
मौन भाषा की गहराई क्या सचमुच समझ नहीं आती
क्यूँ मृदुल भावों की ढींठ बन तुम नित सुलगाते छाती ,
स्नेही बाँहों का हार लिए आओगे हर रात गुजर जाए
मनमोहक पुष्प खिला जाएं कितनी भोली हैं आशाएं
क्यों अधरों पर नहीं ला पायें कुछ ऐसी भी हैं पीड़ाएँ ,
मन का सिंगार समझते,हृदय के तार स्वयं जुड़ जाते
अनजान बने तुम खूब पता,गए वक्त नहीं फिर आते
काश अंतरंग बातें व्यथित तुमसे मुक्त कंठ कह पाते ,
संवाद बिना भी मच रहा बवंडर मन की खाई गहराई
कुछ तो हो नवीन अलग-विलग दिल में गूंजे शहनाई
जीवन की संध्या बेला सम्बन्धों में लायें नूतन रअनाई ।
रअनाई--कोमलता,सुंदरता
शैल सिंह
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