शनिवार, 21 जून 2014

कुछ ऐसी भी हैं पीड़ाएँ

     कुछ ऐसी भी हैं पीड़ाएँ 



झंकृत होतीं जब भाव तरंगें रेती फूल हृदय के उगते 
विकृत हो जाती नैसर्गिकता जब निर्मम हो तुम हँसते ,

छोटी-छोटी अभिलाषायें हर ऱोज उमग कर मुर्झातीं  
मौन भाषा की गहराई क्या सचमुच समझ नहीं आती 
क्यूँ मृदुल भावों की ढींठ बन तुम नित सुलगाते छाती ,
             
स्नेही बाँहों का हार लिए आओगे हर रात गुजर जाए
मनमोहक पुष्प खिला जाएं कितनी भोली हैं आशाएं
क्यों अधरों पर नहीं ला पायें कुछ ऐसी भी हैं पीड़ाएँ ,

मन का सिंगार समझते,हृदय के तार स्वयं जुड़ जाते
अनजान बने तुम खूब पता,गए वक्त नहीं फिर आते
काश अंतरंग बातें व्यथित तुमसे मुक्त कंठ कह पाते ,

संवाद बिना भी मच रहा बवंडर मन की खाई गहराई
कुछ तो हो नवीन अलग-विलग  दिल में गूंजे शहनाई  
जीवन की संध्या बेला सम्बन्धों में लायें नूतन रअनाई ।

रअनाई--कोमलता,सुंदरता


                                                शैल सिंह 

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