ऊफ़ ये कैसी गर्मी मुहाल हुआ जीना
तपा रही दुपहरी तर-तर चुवे पसीना
जेठ का महीना हाय जेठ का महीना
बेचैन धरती चातक का चटके सीना
तरास नाहिं बूझे काँहे बदरा हठी कमीना ।
बिवाई सी फटी दरार सूखा कोना-कोना
तनिक रईन ना डोले जी छत पर कैसे सोना
यहाँ-वहाँ कैसे कोई भी दुलहिन नवयौवना
ख़राब ज़माना खुले में सोए बिछा बिछौना ।
मग़रूर मेघा उमड़-घुमड़कर आये जाये
दो बूँद सलिल के लिए हाय जिया तरसाये
मुश्किल में किसान हाथ मल-मल कसमसाये
ऊसर,परती हुआ खेत कैसे अन्न प्रचुर उगाये ।
निर्मोही बदरा की ऊफ़ बेदर्द सी चितवन
घेरि -घेरि काली घटा उगले जैसे अदहन
ओ रे निर्धन नभ,पनघट से झर निर्झर-निर्झर
हरष उठे त्रस्त जीवन सरस उठे जग उपवन ।
शैल सिंह
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