गुरुवार, 19 जून 2014

ऊफ़ ये कैसी गर्मी मुहाल हुआ जीना

ऊफ़ ये कैसी गर्मी मुहाल हुआ जीना

तपा रही दुपहरी तर-तर चुवे पसीना
जेठ का महीना हाय जेठ का महीना 
बेचैन धरती चातक का चटके सीना 
तरास नाहिं बूझे काँहे बदरा हठी कमीना । 

बिवाई सी फटी दरार सूखा कोना-कोना 
तनिक रईन ना डोले जी छत पर कैसे सोना 
यहाँ-वहाँ कैसे कोई भी दुलहिन नवयौवना 
ख़राब ज़माना खुले में सोए बिछा बिछौना । 

मग़रूर मेघा उमड़-घुमड़कर आये जाये 
दो बूँद सलिल के लिए हाय जिया तरसाये 
मुश्किल में किसान हाथ मल-मल कसमसाये
ऊसर,परती हुआ खेत कैसे अन्न प्रचुर उगाये । 

निर्मोही बदरा की ऊफ़ बेदर्द सी चितवन 
घेरि -घेरि काली घटा उगले जैसे अदहन 
ओ रे निर्धन नभ,पनघट से झर निर्झर-निर्झर  
हरष उठे त्रस्त जीवन सरस उठे जग उपवन । 
                                             शैल सिंह 


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