अधुरा प्रेम

तुम संग रेखाओं में परिणय लिखा या नहीं 
ये पता तो नहीं था मन से मन के मिलन में 
कितने सपने सलोने संजोए हमारे नयन थे 
रिश्ता स्वाहा हुआ ग्रह कुण्डली के हवन में । 

पीकर अश्रुओं को रश्मों के दस्तूर निभाना 
किसी के नाम की मेंहदी मौन साधे रचाना 
निर्जीव देह की भीत हल्दी चंदन लगवाना 
कितनी त्रासदी से गुजरी किसी ने न जाना ।

कहीं रूसवा ना हो पावन प्रेम मेरा तुम्हारा 
प्रतिष्ठा मान की दुहाई हृदय असहाय हारा 
श्रृंगार तन पे सजा मन की देहरी सूनी रही 
बेगाना आलम ना जाना तड़पती रोती रही । 

मजबूरियों की शिला पर लिख रही दास्तां 
विवशताओं की बेड़ियां जकड़ी रहीं रास्ता 
रो उठा आईना भी देख नैनों में चेहरा तेरा 
कैद पिंजरा में फड़फड़ाता रहा परिंदा तेरा ।

की हजारों जतन कोई युक्ति आई ना काम 
तमन्ना थी मिलन की पर वह आई ना शाम 
कितने पैग़ाम भेजी ख़त तमाम लिख भेजे 
ख़त तो आये बहुत कोई मेरे आया ना नाम ।

एक अजनबी के संग बंधी डोर ज़िंदगी की 
ना ही तेरी ना मुक़म्मल हो सकी किसी की 
भले न की गदर ना जीत सकी मुश्किलों से 
किसी को कैसे सौंप दूं जागीर तेरे प्रीत की ।

बीते लम्हों की मिल्क़ियत सभी संभालकर 
उर के संग्रहालय में रखी हूं सजा संवारकर 
जब भी याद आये संग तेरे बिताये गये पल 
खोल देख लिया नम ऑंखों से अजायबघर ।

अजायबघर--म्यूजियम

शैल सिंह 
सर्वाधिकार सुरक्षित 


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