दो पाट हैं इक नदी के हम
जगे तो भी आँखों में
सोये तो भी आँखों में
सोये तो भी आँखों में
जर्रे-जर्रे में महफ़िल के
तन्हाई की पनाहों में ,
हँसी के फुहारों में
रोये तो भी आहों में
चलूँ तो परछाई बन
संग-संग साथ सायों में ,
संग-संग साथ सायों में ,
नजर फेरूं जिधर भी
हर पल साथ रहते हो
हर पल साथ रहते हो
मुझे तुम छोड़ दो तन्हा
क्यूँ वार्तालाप करते हो ,
मत आ आकर घिरो
नयन की घटाओं में
छुप-छुप कर ना बैठो
उर के बिहड़ सरायों में ,
खटकाओ ना सांकल मौन की
ना दो शान्ति पर दस्तक
बना लूंगी आशियाँ अपना
यादों के उजड़े दयारों में ,
बना लूंगी आशियाँ अपना
यादों के उजड़े दयारों में ,
जो गुजरी है वो काफी है
अब ना कोई सौग़ात बाकी है
दो पाट हैं हम इक नदी के
बस मुसाफिर हैं कगारों में
अब ना कोई सौग़ात बाकी है
दो पाट हैं हम इक नदी के
बस मुसाफिर हैं कगारों में
दर्द से तड़प से मोह हमें
अब तो हो गई है बेइंतहा
ज़िन्दगी के शेष पन्नों को
उड़ाना है मुझे बहारों में ।
ज़िन्दगी के शेष पन्नों को
उड़ाना है मुझे बहारों में ।
शैल सिंह
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