शनिवार, 7 जनवरी 2023

कितनी शान से इतराता है तूं

ऐ चाँद उतर आ जरा जमीं पर 
ये दुनिया तुझको भी नहीं बख़्शेगी 
ग़र हटा दो मुख से घूँघट बदली का
देख नज़ारा दुनिया यूँ ही सहकेगी ,

कभी बन ईद का चाँद ठसक से
कितनी शान से इतराता है तूं
कभी सुहागिनों के करवाचौथ का 
बन चाँद छुप मनुहार करवाता है तूं

चाँद सा मुखड़ा से नवाजते तुझे लोग
छतों की मुंडेरों से निहारते तुझे लोग
जब लगता तुम पर ग्रहण ऐ चाँद 
क्यों इसी चाँद से आँख भी चुराते लोग  

कभी तुम ग़ज़लों का सरताज बन
महफ़िलों को कर देते हो गुलज़ार 
कभी शेरो,शायरी,नज़्म में सज तुम
सूने बज़्म को भी कर देते हो आबाद 

कभी तुम चौदहवीं का चाँद बन
कहलाते हो बड़े ही हो लाज़वाब 
कभी तुम तनहा बादलों के पीछे
छुप-छुपकर कर देते हो नाशाद

कभी ईश्क़ की दौलत बन तुम
सज जाते हो आँखों में बन ख़्वाब 
कभी जेहन में,कुरेदकर जख़्मों को,
दोस्तों का अक़्स उतार देते हो जनाब

कभी उपमानों की कतार का
बन जाते हो चन्दा सा उजियार 
कभी उतरकर समंदर,दरिया में 
सुरमई चाँद बन जाते हो यार

किसी के होते पलकों के चाँद तुम 
किसी के इन्तज़ार के महबूब तुम 
किसी के हमसफ़र होते तुम चाँद 
किसी की उपमा के होते चार चाँद

तुझसे होती खूबसूरत शाम भी चाँद 
तेरी रोशनी में छलकते जाम भी चाँद 
कहर ढाते हो ईश्क़, हुस्न की बदा पे
इसीलिए करते हो रस्क अपनी अदा पे ।

शैल सिंह 
सर्वाधिकार सुरक्षित 


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